जानें प्राचीन भारत में भौतिकी एवं यंत्र निर्माण कला....


स्टोरी हाइलाइट्स

प्राचीन भारत में जहां एक ओर अध्यात्म विद्या में काफी प्रगति हुई वहीं दूसरी ओर ज्ञान विज्ञान, कला-कौशल आदि में भी काफी विकास हुआ. भारत........

प्राचीन भारत में भौतिकी एवं यंत्र निर्माण कला..
प्राचीन भारत में जहां एक ओर अध्यात्म विद्या में काफी प्रगति हुई वहीं दूसरी ओर ज्ञान विज्ञान, कला-कौशल आदि में भी काफी विकास हुआ. भारत में भौतिक विज्ञान की प्रगति का इतिहास काफी पुराना है. रामायण काल में भारतीयों ने विज्ञान संबंधी कई छोटे-बड़े अनुसंधान कर लिये थे. प्रारंभ से ही भारत में दर्शन और विज्ञान का आधार प्रकृति के रहस्यों को जानना रहा है.

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द्रव्य और ऊर्जा दोनों ही भौतिक विज्ञान के मूल आधार रहे हैं. द्रव्य का अर्थ पदार्थ से है. भगवान राम द्वारा समुद्र पर पुल बांधा जाना हमारी प्राचीन शिल्पकला का उत्कृष्ट उदाहरण है. आधुनिक पुरातत्ववेत्ता भी मानने लगे हैं कि भारत के दक्षिणी छोर और श्रीलंका के बीच एक पुल था जो कालांतर में समुद्र के गर्भ में समा गया जिसके अवशेष समुद्र के भीतरी तल में देखे गये हैं. लंका नरेश रावण के पास पुष्पक विमान था जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में आया है.

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जाल वातायनैयुकि काचैनः स्फाटिकैरपि अर्थात् पुष्पक विमान सोने की जालियों और स्फटिक मणि की खिड़कियों से युक्त था. भारद्वाज सूत्र में उल्लेख है.

दिक्प्रदर्शन रहस्यो नाम विमान मुखकेंद्र कीलीचालनेन दिशम्पतियंत्र नालपत्र द्वारा परयानागमन दिक्प्रदर्शन रहस्यम्। अर्थात् दिक्प्रदर्शन नामक अट्ठाइसवें रहस्य के अनुसार विमान के मुख केंद्र की किली (बटन) के चलाने से 'दिशाम्पति' नामक यंत्र की नली में रहने वाली सुई द्वारा दूसरे विमान के आने की दिशा जानी जाती है.

नौका निर्माण कला में भी काफी प्रगति हुई थी. चुंबकीय शक्ति का भी भारतीयों को ज्ञान था. राजा भोज ने 'यंत्रसार' नामक ग्रंथ में लिखा है-

न सिंधु गाद्यार्बति लौहबंध तल्लोहकांतैर्छियतेचलोहम्। 

विपद्यते तेन जलेषुनौका गुणेन बंधं निजगाद भोजः॥

अर्थात् जहाजों की पेंदी के तख्तों को जोड़ने के लिए लोहे को काम में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि समुद्र में स्थित चुंबकीय चट्टानें स्वभावतः लोहे को अपनी ओर खींचेंगी जिससे जहाजों को खतरा है.

भौतिक विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में भी पर्याप्त खोज हुई थी. 'पृथ्वी का आंतरिक भाग गर्म है'- यह बात पश्चिमी वैज्ञानिकों से सैंकड़ों वर्ष पूर्व भारतीय वैज्ञानिकों ने बता दी थी. शतपथब्राह्मण में पृथ्वी को 'अग्निगर्भा' कहा गया है. यजुर्वेद में लिखा है कि पृथ्वी अग्नि को उसी प्रकार अपनी गोद में रखती है जिस प्रकार मां अपने बच्चे को.

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पृथ्वी के गोल होने का प्रमाण भी आर्ष ग्रंथों में मिलता है. जैमिनीब्राह्मण में लिखा है कि पृथ्वी ही नहीं, सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रह भी पृथ्वी के समान गोल हैं. सूर्य को हमारे मनीषी विद्वानों ने देव माना है. यह शक्ति अर्थात् ऊर्जा का मूल स्रोत तथा प्रकाश का देवता है. 

शतपथब्राह्मण में आता है- ‘आपही सूर्य हैं और सूर्य ही आप'. सूर्य आप, वायु और अग्नि से मिलकर बना है, ऐसा प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक मानते थे. 'आप' का अर्थ उद्जन गैस ही है. हाइड्रोजन का हिलियम गैस में परिणत होना ही उद्जन गैस है. निरंतर इस रासायनिक प्रक्रिया के कारण ही सूर्य के गर्भ में अनंत ऊर्जा का निर्माण हो रहा है.

पुराणों में सूर्य को गतिशील माना गया है. आधुनिक युग में भी खगोल विज्ञानवेत्ता स्वीकार करते हैं कि सूर्य भी अपने केंद्र पर घूमकर 200 कि.मी. प्रति सैकंड की गति से किसी आकाशीय पिंड की परिक्रमा करता है.

परमाणु का ज्ञान भी भारतीयों को हजारों वर्ष पूर्व हो गया था. उन्होंने परमाणु का आकार भी निश्चित कर दिया था. वैशेषिक दर्शन के रचनाकार कणाद ऋषि प्रकाश और ताप को एक ही पदार्थ के दो भिन्न-भिन्न रूप मानते थे. जैन शास्त्रों में लिखा है कि परमाणु अणु से भी छोटा होता है. उसे हम अपनी आंखों से नहीं देख सकते. एक जैन ग्रंथ में लिखा है कि परमाणु पुद्गल, अविभाज्य, अभेद्य और अच्छेद्य है. किसी भी उपाय या साधन से उसका विभाजन नहीं हो सकता.

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प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक जयंत और उद्योतकर ने प्रकाश की किरणों के बारे में विशेष खोज की थी. सूर्य को 7 घोड़ों के रथ पर आरूढ़ माना है जिसका अभिप्राय यह है कि प्रकाश की किरणों में 7 रंग होते हैं. उन्होंने विभिन्न प्रकार के लेंसों और शीशों का प्रयोग किया था. 

आगे चलकर न्यूटन ने भी यही सिद्धांत प्रतिपादित किया कि सूर्य की किरणों में 7 रंग होते हैं. ध्वनि संचार के दो माध्यम माने जाते हैं. शर्बर स्वामी ने एक माध्यम हवा माना और उद्योतकर ने दूसरा माध्यम ईथर. दोनों ही भारतीय वैज्ञानिकों को तरंग-वेग का ज्ञान था. संगीत दर्पण और संगीत रत्नाकर ग्रंथों में ध्वनि के भिन्न भिन्न स्वरों का उल्लेख है.

चुंबकीय सुई बनाना भी भारतीय जानते थे. जब भारतीय व्यापारी जावा-सुमात्रा आदि द्वीपों में गये तो साथ में कुतुबनुमा सुई भी ले गये थे. उसे 'मत्स्य यंत्र' कहा जाता था. वह सदा तेल के पात्र में रखा जाता था. उत्तर दिशा की ओर इसकी सुई ठहरती थी. 

पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का भी आर्यभट्ट ब्रह्मगुप्त, भास्कर आदि गणितज्ञों को था. उन्होंने कहा कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह प्रत्येक वस्तु को अपने केंद्र की ओर खींचती है. भारतीय गणितज्ञों को सापेक्ष गति का ज्ञान था. उनके कथनानुसार भिन्न-भिन्न ग्रहों पर भिन्न-भिन्न दिनों के वर्ष होते हैं.

प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक उद्योतकर को प्रकाश के परावर्तन व आवर्तन के बारे में ज्ञान प्राप्त था. उसने छाया, पारदर्शिता और अपारदर्शिता के बारे में कुछ नियम बनाये. भारतीय वैज्ञानिकों के अनुसार द्रव्य और ऊर्जा को अविनाशी माना गया.

वैदिक ग्रंथों में केंद्र को नाभि कहा गया है. एक जगह पुरोहित यजमान से पूछता है-

पृच्छामि त्वा परमंत पृथिव्याः। 

पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः।।

यहां दो प्रश्न हैं. प्रथम पृथ्वी की जहां समाप्ति होती है वह स्थान कहां है ? दूसरा ब्रह्माण्ड की नाभि (केंद्र) कहां है?

गणित, रसायन और आयुर्वेद में भी भारत में पर्याप्त उन्नति हुई थी. फलित ज्योतिष का आधार गणित ही है. आर्यभट्ट ने काफी पहले बता दिया था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, जबकि यूरोप के वैज्ञानिकों को इसका ज्ञान 15वीं शताब्दी में हुआ. आर्यभट्ट रचित 'सूर्य-सिद्धांत' ग्रंथ में पृथ्वी के वृत्ताकार होने का वर्णन है. इसमें पृथ्वी का व्यास 7905 मील बताया गया है, 

जबकि आज के भूगोलवेत्ताओं के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7918 मील है. पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमने का भी वर्णन आता है. दिल्ली में कुतुबमीनार के पास जो अशोक स्तंभ है वह किस प्रकार के लोहे का बना है कि अब तक उसमें जंग नहीं लगी है. यह बात आज भी वैज्ञानिकों को आश्चर्य में डालती है. शून्य (0) का आविष्कार भारतीय गणितज्ञों ने ही किया था. अरब में इसे 'हिंद सा' अंक कहा जाता था.

सच पूछा जाये तो आधुनिक विज्ञान का उद्गम स्थल भारत ही है. बाहरी आक्रमणों के कारण 12वीं शताब्दी के अंत में वैज्ञानिक प्रगति रुक गयी. आधुनिक युग में भी भारत को डॉ. जगदीशचंद्र बसु, डॉ. भाभा, मेघनाद शाह, बीरबल साहनी, सी. वी. रमण, डी. एस. कोठारी, नार्लिकर, खुराना, डॉ. अब्दुल कलाम आदि वैज्ञानिकों और गणितज्ञों पर गर्व है. प्राचीन भारत में भौतिक विज्ञान में प्रगति का होना हमारी संस्कृति व सभ्यता के उन्नयन का परिचायक है.

-डॉ. श्याम (VED AMRIT)