पहले मनुष्य के मन में विचार उठते हैं। फिर वह उन्हें वाणी अथवा कार्य द्वारा प्रकट करता है। मनुष्य के आचरणों का मूल आधार उसके विचारों, भावों में ही रहता है। जो मनुष्य जैसे विचार रखता है, वह उसी प्रकार का हो जाता है। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके अपने अमूर्त विचारों का साक्षात् प्रकटीकरण मात्र है।
जप से मनुष्य के विचार संयत हो जाते हैं। बार-बार एक विशेष प्रकार के शब्द को उच्चारित करने और सुनने से व्यक्ति के मन और मस्तिष्क पर उसका स्थायी प्रभाव पड़ता है क्योंकि मस्तिष्क में उस शब्द का अर्थ भाव अंकित हो जाता है। यही अर्थ भाव धीरे-धीरे गहरे उतर कर अंतःकरण में एक संस्कार का रूप ले लेता है। यह संस्कार ही हमारा स्वभाव बन जाता है। फिर हम उसी स्वभाव के अनुरूप आचरण करते हैं।
जप के समय साधक के सामने इष्टदेव के रूप, गुण, कर्म का चित्र प्रत्यक्ष-सा उपस्थित होता है। इष्ट के गुणों के प्रभाव से साधक के पूर्व जनित संस्कारों में क्रान्तिकारी सात्त्विक परिवर्तन होने लगता है। उसके मन-मस्तिष्क में अज्ञान-अंधकारमय असद् विचारों के लिए स्थान ही नहीं रह जाता।
लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर, क्रोध आदि सभी दूषित संस्कार-भाव घिसने-मिटने लगते हैं। तामस, राजस भावों के स्थान पर शुद्ध, सात्विक भाव अंतःकरण में अंकित हो जाते हैं।
जैसे- 'ओम' शब्द के कहने मात्र से मन में उसके रूप, रंग, गुण, स्वाद का भाव उदय हो जाता है और दुर्गंधयुक्त गंदी वस्तु के नाम स्मरण मात्र से मन घिनाने लगता है, वैसे ही इष्टदेव के नाम-स्मरण व उच्चारण से मन में दैवी गुणों का उदय होने लगता है, मन शुद्ध होने लगता है, विकार दूर होने लगते हैं। साधक देवी-भाव को प्राप्त होने लगता है। जप इष्टदेव की प्राप्ति का सरल वैज्ञानिक उपाय है।