शुक्ल यजुर्वेद के प्रणेता महर्षि याज्ञवल्क्य
-दिनेश मालवीय
महर्षि याज्ञवल्क्य का नाम वैदिक मंत्रदृष्टा और उपदेष्टा ऋषियों मेंसबसे ऊँचा है. है. यह अध्यात्म और योग के परम ज्ञाता होने के साथ ही बहुत धर्मात्मा तथा रामकथा के प्रवक्ता हैं. प्रयाग में भरद्वाज ऋषि ने इनसे आग्रह कर रामकथा सुनाने का अनुरोध किया था. उन्होंने ऋषि के भगवत्प्रेम को देखते हुआ और जन-कल्याण की भावना से यह कथा उन्हें सुनाई. इसे श्रीरामचरितमानस के चार प्रमुख संवादों में प्रमुख स्थान प्राप्त है, जो भरद्वाज-याज्ञवल्क्य संवाद कहा जाता है. याज्ञवल्क्यजी को भगवान सूर्यदेव का आशीर्वाद प्राप्त था.
पुराणों में महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा वैदिक मंत्रों को प्राप्त करने की रोचक कथा मिलती है. इसके अनुसार याज्ञवल्कय महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे. उन्हें इन्ही से मंत्रशक्ति और वेदों का ज्ञान मिला. वैशम्पायन अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह रखते थे और वह भी पूरी निष्ठा से गुरु की सेवा करते थे. लेकिन जीवन बहुत जटिल और विचित्र है. कभी भी कुछ भी होना संभव है.
एक बार ऐसा दुर्योग हुआ कि गुरु से इनका कुछ विवाद हो गया. वैसे तो शास्त्रों में गुरु से विवाद नहीं करने का निर्देश है, लेकिन दुर्योग से कभी ऐसा हो भी जाता है. शिष्य के लिए इसके परिणाम अच्छी नहीं होते. इस वाद-विवाद से गुरु रुष्ठ हो गये. गुरु ने कहा कि मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मंत्रो का उपदेश दिया है, उन्हें तुम उगल दो. गुरु की आज्ञा मानकर
उन्होंने सारी वेदमंत्रविद्या मूर्तरूप से उगल दी. इसे वैशम्पायन के दूसरे शिष्यों ने तित्तिर (तीतर पक्षी) बन कर ग्रहण कर लिया. इस तरह वे मंत्र उन्हें प्राप्त हो गये. यजुर्वेद की जिस शाखा को तीतर बनकर उनके शिष्यों ने ग्रहण किया था वह “तैत्तरीय शाखा” के नाम से प्रसिद्ध हो गयी.
याज्ञवल्क्य अब वेदज्ञान से रहित हो गये. गुरुजी भी रूठे हुए थे. बहुत विषम स्थिति थी. लेकिन उनके भीतर ज्ञान की पिपासा इतनी तीव्र थी कि बिना ज्ञान के वह जल से बाहर मछली की तरह तड़पने लगे. ऐसी स्थिति में उन्होंने भगवान सूर्यनारायण की शरण ली. सूर्यदेव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर उन्होंने प्रार्थना की कि आप मुझे यजुर्वेद का ऐसा ज्ञान दीजिये जो अबतक
किसी को प्राप्त न हुआ हो. सूर्यदेव ने अश्वरूप धारण कर उन्हें उन मंत्रो का उपदेश दिया, जो पहले किसीको प्राप्त नहीं हुए थे. अश्वरूप सूर्य से प्राप्त होने के कारण शुक्ल्यजुर्वेद की एक शाखा “वाजसनेय” और दिन के मध्य में प्राप्त होने से “माध्यन्दिन” शाखा कहलायी. इस प्रकार शुक्लयजुर्वेद संहिता के मुख्य मंत्रदृष्टा ऋषि आचार्य याज्ञवल्क्य हैं.
इस संहिता में चालीस अध्याय हैं. वर्तमान में अधिकतर लोग इस वेद्शाखा से ही जुड़े हैं. सभी पूजा, अनुष्ठान, संस्कार आदि में इसी संहिता के मंत्रों का प्रयोग होता है. रुद्राष्टधयायी नाम से जिन मंत्रों से भगवान शिव की आराधना की जाती है, वे इसी संहिता के हैं.
इस संहिता का ब्राह्मण भाग “शतपथब्राह्मण” के नाम से प्रसिद्ध है. “वृहदारण्यक उपनिषद” भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा हमें प्राप्त हुआ है. इनका गार्गी, मैत्रेयी और कात्य्यायनी जैसी ब्रह्मवादिनी स्त्रियों से हुआ शास्त्रार्थ बहुत प्रसिद्ध है. यह शास्त्रार्थ ज्ञान-विज्ञान और ब्रह्मतत्व के सम्बन्ध में हुआ.
याज्ञवल्क्यजी ने प्रारम्भ में प्रयाग में महर्षि भरद्वाज को श्रीरामचरितमानस की कथा सुनाई. इसके अलावा, उन्होंने एक अन्य महत्वपूर्ण धर्मशास्त्र का प्रणयन किया, जिसे “याज्ञवल्क्य स्मृति” कहा जाता है. इस पर मिताक्षरा आदि प्रौढ़ संस्कृत टीकाएँ हुयी हैं. यह बहुत व्यवस्थित रचना है. मिताक्षरा टीका को हिन्दू धर्म शास्त्र के मामले में देश की अदालतों में प्रमाण माना जाता रहा. इसके “दायभाग” में पैतृक धन अर्थात पिता-दादा की संपत्ति केपुत्रों, पौत्रों और सम्बन्धियों में विभाजन की व्यवस्था है.
इस स्मृति के अनुसार गर्भवती स्त्री की हरएक इच्छा को पूरा किया जाना चाहिए. इस दौरान यदि उसकी कोई इच्छा पूरी न की जाए तो गर्भ विकृत होता है. उसका मरण हो सकता है या उसमें अनेक दोष हो सकते हैं. इस काल में स्त्री के दो ह्रदय होते हैं-एक उसका स्वयं का और दूसरा गर्भस्थ संतान का. इनकी पूर्ति होने से संतान गुणवान, बलवान और दीर्घजीवी होती है. इसके
द्वारा गर्भवती स्त्री का पूरा ध्यान रखने की शिक्षा दी गयी ही.
मिताक्षरा टीका के अनुसार, हरएक व्यक्ति को जन्म से ही अपने पिता की संयुक्त परिवार की संपत्ति में भागीदारी प्राप्त होती है. आगे चलकर इसमें लड़कियों को भी शामिल कर लिया गया.
इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने ज्ञान के द्वारा मानव समाज का बहुत कल्याण किया. उनके द्वारा दिखाए गये मार्ग और उपदेश भारतीय समाज अपनेआचरण को शुद्ध रखने में बहुत सहायक हुए हैं और आज भी हो रहे हैं.