अध्यात्म क्या है:-जीवन में यह क्यों आवश्यक है -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

There is a lot of discussion about spirituality in the whole world today. A person who is unable to achieve self-fulfillment through physical comforts, is desperately looking for something that can give him permanent fulfillment and lasting enjoyment.

अध्यात्म क्या है जीवन में यह क्यों आवश्यक है -दिनेश मालवीय पूरी दुनिया में आज अध्यात्म की बहुत चर्चा है. भौतिक सुख-सुविधाओं से आत्म-तृप्ति पाने में नाकाम इंसान किसी  ऎसी चीज की बहुत शिद्दत से तलाश में है, जिससे उसे स्थायी तृप्ति और हमेशा बना रहने वाला आनंद मिल सके. ऐसे में उसे अध्यात्म ही एक मार्ग दिखाई दे रहा है. लोग बहुत तेजी से अध्यात्म की ओर मुड़ रहे हैं. एक तरह से देखा जाए तो अध्यात्म का एक पूरा बाजार ही विकसित हो गया है. लेकिन इसमें बहुत ज्यादा नकारात्मकता देखना उचित नहीं है, क्योंकि बहुत अधिक बढ़ने पर अच्छी से अच्छी चीज में कुछ बुराई आ ही जाती है. [caption id="attachment_51856" align="aligncenter" width="1036"] What is spirituality[/caption] अब सवाल उठता है कि पूरी दुनिया को अपनी तरफ तेजी से खींचने वाला अध्यात्म है क्या? कुछ लोग इसे बेमतलब की कल्पना मानकर इसकी अवहेलना करते हैं और खिल्ली तक उड़ाते हैं. कुछ लोग कोशिश करके भी या सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाने पर इसका सही अर्थ नहीं समझ पाते और इसके प्रति विमुख हो जाते हैं. साधारण भाषा और ढंग से कहा जाए तो हमारी आँखों को जो भी दिखायी देता है या जो कुछ भी अभिव्यक्त है, उसके पीछे क्या है, इसे ही अध्यात्म कहते हैं. इसे जानने के लिए जिस मार्ग को अपनाया जाता है, उसे आध्यात्मिक मार्ग कहा जाता है. इसका कोई निश्चित मार्ग नहीं है. कथित धर्मों में इसके लिए जो विधि-विधान और पद्धतियाँ निर्धारित की हैं, वे केवल आध्यात्म के क्षेत्र के द्वार तक ले जा सकती हैं. अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश के बाद सब कुछ बहुत पीछे छूट जाता है. संसार में आखिर ऐसा क्या है जिसे हमारी आँखें नहीं देख पा रही हैं?  यदि ऐसा है तो किस कारण से देख पा रही हैं? दरअसल हमारी भौतिक आँखों से जो दिखाई दे रहा है या दिखाई दे सकता है, वह सम्पूर्ण श्रृष्टि का एक कण बराबर भी नहीं है. जानने वालों की मानें तो यह .1% भी नहीं है. जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ है, उसे हमारी ये आँखें नहीं देख सकतीं . इस विषय में भारत के ऋषियों ने युगों-युगों से बहुत गहरी खोज की है. कहा जाए तो लाखों लोगों ने इस खोज में अपना पूरा जीवन लगा दिया. उनको जो निष्कर्ष मिले, उन्हें उन्होंने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयत्न किया. इसीके फलस्वरूप अनेक शास्त्र और ग्रंथ अस्तित्व में आये. हालाकि उनका यह भी स्पष्ट कहना रहा है कि हमने सिर्फ कहने की कोशिश की है. कह दिया, इसका कोई दावा नहीं किया. उनके अनुसार उसे कहा ही नहीं जा सकता. महाकवि रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहीं लिखा है कि मैंने हज़ारों गीत लिखे लेकिन जो मैं लिखना चाहता हूँ, वह नहीं लिख पाया. जो मैं गाना चाहता था, वह नहीं गा पाया. हर महान कलाकार,ऋषि, संत या ज्ञानी के साथ ऐसा ही हुआ है. हर किसी ने कुछ जानकार अपनी तरह से उसे व्यक्त करने का प्रयास किया. इसी कारण बाहर से देखने पर उनकी बातों में कुछ विरोधाभास प्रतीत होता है. लेकिन अध्यात्म के मार्ग पर  जो लोग थोड़ा भी आगे बढ़ जाते हैं, उन्हें इनमें कुछ वोरोधाभास नहीं दिखाई देता. इसीलिए संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है कि- “वाल्मीक नारद घटजोनी, निज मुखन कही निज होनी” यानी वाल्मिक, नारद और अगस्त आदि, सबने अपने-अनुभवों को अपनी तरह से लिखा है. वह आगे यह भी कहते हैं कि हालाकि उसे कहा नहीं जा सकता लेकिन कहे बिना भी  कोई नहीं रह सका. ऋषि-मुनियों ने कुछ बड़े सटीक उदाहरण दिए हैं. उन्होंने सारी श्रृष्टि में एक ही चेतना के व्याप्त होने की बातो को समझाने का प्रयास किया है. उन्होंने यह विचार करने को कहा कि कान किस शक्ति से सुन पा रहे हैं? जुबान किस शक्ति से बोल पा रही है? आँख किस शक्ति से देख पा रही है? मस्तिष्क किस शक्ति से काम कर रहा है? शरीर के सारे अंग किस चेतना से संचालित हैं? वह कौन सा तत्व है जिसके नहीं रहने पर हमारा शरीर मिट्टी बन कर रह जाता है? इसके बाद हमारे अपने प्रियजन इसे जल्दी से जल्दी आग या मिट्टी के हवाले करने कि कोशिश करते हैं? स्थूल के पीछे सूक्ष्म क्या है? दृश्य के पीछे अदृश्य क्या है? व्यक्त के पीछे अव्यक्त क्या है? पल-पल बदलते दृश्य में ऐसा क्या है जो नहीं बदल रहा? हर एक चीज का हर पल क्षरण हो रहा है और उसका एक न एक दिन अंत होना हो, लेकिन क्या कुछ ऐसा भी है, जिसका न तो क्षरण हो रहा और न जिसकी मृत्यु होगी? उस तत्व को जानना ही अध्यात्म है. इन प्रश्नों की तलाश से ही अध्यात्म शुरू होता है. इन्ही प्रश्नों का हल खोजते हए मानव आध्यात्मिक भावभूमि में प्रवेश करता है. श्रीमदभगवतगीता में श्रीकृष्ण ने अध्यात्म को ‘आत्मा का ज्ञान’ कहा है. महाभारत के शान्ति पर्व में युधिष्ठिर द्वारा अध्यात्म का अर्थ पूछे जाने पर भीष्म ने भी यही कहा कि ‘अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर चेतन तत्व को जानना’. इसी आध्यात्मिक खोज में ध्यान, प्राणायाम, योग, तंत्र, प्रार्थना सहित अनेक साधना पद्धतियों का विकास हुआ. अध्यात्म या आत्मतत्व को समझकर दुनिया में कुछ भीजानना-समझना बाकी नहीं रह जाता. इस शाश्वत तत्व का ज्ञान होने पर इंसान हमेशा के लिए शोक और संताप से मुक्त हो जाता है. दुःख समाप्त नहीं होते, लेकिन दुःख का अहसास समाप्त हो जाता है. दृश्य तो नहीं बदलते लेकिन दृष्टि बदल जाती है. अध्यात्म की गहरी समझ और अनुभूति हो जाने पर मनुष्य सम्पूर्ण श्रृष्टि में स्वयं को और स्वयं को सम्पूर्ण श्रृष्टि को देखने लगता है. उसे जड़-चेतन और हर जीव में एक ही चेतना के दर्शन होते हैं. द्वेत भाव समाप्त हो जाता है. कोई पराया नहीं रहता. मोटे तौर पर अध्यात्म को कुछ इसी प्रकार समझा जा सकता है. हालाकि सिर्फ पढने या सुनने से यह पूरी तरह समझ नहीं आ सकता. लेकिन इसकी कुछ झलक तो मिल ही जाती है. इस दृष्टि से गीता और उपनिषदों का अध्ययन कर कुछ मार्गदर्शन मिल सकता है. आज भौतिकता से दग्ध मनुष्य को शान्ति और आत्म-तृप्ति केवल अध्यात्म से ही मिल सकती है. और कोई अन्य उपाय नहीं है.