रजनीति का फ्री “गिफ्ट” अर्थव्यवस्था की चरमराती “लिफ्ट”
सार्वजनिक कोष से ‘‘अतार्किक मुफ्त सेवाएं’’ वितरित करने या इसका वादा करना कितना उचित? क्या फ्री और झूठे वायदों पर कनूनी प्रावधान ज़रूरी है? राजनीतिक दलों का चुनाव चिह्न जब्त करने या उनकी मान्यता रद्द करने का दिशा-निर्देश देने का अनुरोध करने वाली जनहित याचिका नें छेड़ी बहस, मतदाताओं से अनुचित राजनीतिक लाभ लेने के लिए बेजा लोकलुभावन वायदों पर प्रतिबन्ध लगना कितना ज़रुरी?
प्यार परवान चढ़ना चाहिए, वार में विजय मिलनी चाहिए, और प्रचार में लक्ष्य पूरा होना चाहिए| इसके अलावा किसी बात का कोई अर्थ नहीं है| अभी तक देश में ऐसा ही चल रहा है|
प्यार और वार में कोई शर्त नहीं होती| केवल जीत ही मकसद होता है| प्यार में जब धर्म का घालमेल हुआ तब लव जिहाद रोकने का कानून बना| वार तो अब एटम बम तक पहुंच गया है| रहा प्रचार तो प्रचार भी आज ऐसे तरीके अपना रहा है| कि सच और प्रचार का दूर-दूर तक कोई नाता दिखाई नहीं पड़ता|
चुनावी प्रचार घोषणा पत्र और मतदाताओं को फ्री में
सब कुछ देने का वायदा कर चुनावी लाभ प्राप्त कर सरकार में आने का लक्ष्य ही दिखाई पड़ रहा है| चुनावी वायदों के जरिए हर तरीके से मतदाताओं का शिकार करने की कोशिश की जाती है| हमारे देश में कहावत है कि किसी भी शिकार के लिए चारे की जरूरत होती है शिकार चारे में ही फंसता है| मछली पकड़ने में केंचुए का चारा उपयोग किया जाता है| तो जंगल के शेर के शिकार के लिए बकरी को चारा बनाया जाता है|
इसी प्रकार चुनावों में घोषणा पत्रों के जरिए फ्री वायदों का चारा मतदाताओं को डाला जाता है| जिसके चारे में मतदाता फंस गया वह सरकार बनाने में सफल हो जाता है| और जो चुनाव नहीं जीत सका उसके सारे वायदे धरे के धरे रह जाते हैं| “घोषणा” पत्र आज मतदाताओं के लिए “शोषणा” पत्र बन गए हैं| कोई भी राजनीतिक दल घोषणा पत्रों के लिए इमानदारी से प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता|
आंकड़ों में तो वादा पूरा लेकिन हकीकत में अधूरा?
आज घोषणा पत्रों का कोई भी कानूनी स्वरूप नहीं है| जनप्रतिनिधित्व कानून में चुनावी वायदे और सब कुछ फ्री देने की घोषणायें भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत नहीं आती इसलिए जो चाहे वायदा कर दो और चुनाव की निष्पक्षता को प्रभावित करो|
लग गया तो सरकार में आ जाएंगे, 5 साल सत्ता का आनंद लेंगे फिर जब चुनाव होंगे तब घोषणा पत्रों के हिसाब की बात आएगी|
वायदों का हिसाब देने की बात आएगी तब जनता हरा भी देगी तो क्या गम है? झूठे वायदों के दम पर सरकार में रह ही लिए| कहते हैं 5 साल की राजनीतिक समृद्धि पीढ़ियों तक और कुछ कमाने की जरूरत नहीं छोड़ती|
पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में सभी राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को फ्री बिजली, ऋण माफी, नगद राशियों का भुगतान जैसे बहुत सारे वायदे किए जा रहे हैं| चुनावी वायदे पूरे राजनीतिक माहौल को सौदेबाजी के रूप में बदल रहे हैं| पिछले दिनों राजनीतिक दलों द्वारा फ्री गिफ्ट के वायदों पर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर अदालत ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस देते हुए 4 सप्ताह में जवाब मांगा है|
दरअसल राजनीतिक दलों द्वारा सरकारी धन संपदा को लुभावने वायदे पूरे करने के लिए जनता पर लुटाने से अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है| वैसे भी आज सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति खराब है, कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जो अपना सामान्य कामकाज भी, बिना कर्ज के कर पा रहा हो| हालात यह है कि राज्य का जितना कुल बजट है उससे ज्यादा, उन सरकारों द्वारा लोन लिया गया है| राज्यों की आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है, फिर भी चुनावी वायदे और मतों के लिए कोई लैपटॉप बांट रहा है कोई मोबाइल बांट रहा है तो कोई कुछ और बांट रहा है| बुनियादी क्षेत्रों के विकास में राज्य सरकारें बिछड़ रही है क्योंकि राज्यों के पास पैसा ही नहीं है| चुनाव घोषणा पत्र का आज कोई कानूनी स्वरूप नहीं है| राजनीतिक दल जो चाहे वादे करें, जैसी चाहे घोषणायें घोषणा पत्र में लिखे| उसके लिए उसे कानूनी रूप से जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता|
मध्यप्रदेश में उदाहरण है जब चुनाव में विपक्षी दल ने पेट्रोल डीजल पर वैट टैक्स कम करने का वायदा किया, वो सत्ता में आई तो वेट घटाने की जगह 5% बढ़ा दिया| सरकार का ऐसा आचरण क्या मतदाताओं के साथ धोखा नहीं है? ऐसे नेताओं को क्या मतदाताओं से धोखाधड़ी के लिए कानूनी शिकंजे में ले जाया जा सकता है, लेकिन नहीं, वर्तमान कानून के चलते ऐसा संभव नहीं है|
कांग्रेस पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रत्येक परिवार को ₹72000 देने का वायदा एक योजना के रूप में पेश किया| जनता ने भरोसा नहीं किया कांग्रेस को मतदाताओं ने रिजेक्ट कर दिया| इसलिए इस वायदे पर आगे बात नहीं हुई| हालांकि कांग्रेस चाहती तो उसकी पार्टी से शासित राज्यों में इस घोषणा को अमली जामा पहना सकती थी| लेकिन कांग्रेस ने राज्यों में ऐसा नहीं किया और यह चुनावी वायदा हवा हो गया| ऐसी स्थिति देश के लिए क्या उचित कही जा सकती है? लोकतांत्रिक परंपरा में चुनाव से ही सरकारों का गठन होता है और अगर सरकारों का गठन ही झूठे वादों और झूठे प्रचार पर आधारित हो तो वह सरकार झूठ के इर्द-गिर्द ही अपने कार्य व्यवहार का ताना-बाना बुनेगी|
आगे क्या हो?
घोषणा पत्र को लागू करना सरकारों की कानूनी जिम्मेदारी होनी चाहिए| अदालत ने इस विषय में चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से जवाब मांगा है इससे भरोसा जागा है कि भविष्य में घोषणा पत्र और चुनावी वादों पर कोई वैधानिक प्रक्रिया निर्धारित होगी| दुनिया में कई देश घोषणाओं और वायदों के चलते उन्हें पूरा करने के चक्कर में दिवालिया हो गए|
भारत की ज्यादातर राज्य सरकारें भी दिवालिया होने की स्थिति में ही हैं|
कुल बजट से ज्यादा लोन होना क्या दिवालियापन की स्थिति नहीं है?
लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव आयोग द्वारा खर्च की सीमा निर्धारित की गई है| लेकिन इस सीमा से कई गुना ज्यादा चुनावों में खर्च किया जाता है, जो साफ आंखों से दिखाई पड़ता है| लेकिन इस पर भी कानून के अभाव में कोई कार्रवाई नहीं हो पाती|
क्या चुनावी सुधार समय की जरूरत है?
जब चुनाव की बुनियाद ही पवित्र नहीं होगी तब लोकतांत्रिक सरकारों से शुचिता और पारदर्शिता की आशा रखना बेमानी होगा?
आज तो सरकारों का नेतृत्व करने के लिए विधायकों के साथ सौदेबाजी आम हो गई है| अब तो यहां तक कहा जाता है कि विधायकों को हर महीने नगद पैसे देकर अपने साथ जोड़े रखा जाता है|
एक दौर था जब प्रचार में धन के दुरुपयोग का मामला बहुत तेजी से उभरा था| देश में उस पर चिंतन हुआ फिर सामने आया पैड न्यूज का मामला| पैड न्यूज़ में विज्ञापन देने की बजाय नेता पत्रकार को ही या मीडिया संस्थान को सीधे उपकृत कर देते थे और समाचारों के रूप में उनके पक्ष में प्रचार हो जाता था| बाद में इस पर चुनाव आयोग में कानून बना और पैड न्यूज़ को भ्रष्ट आचरण के रूप में स्वीकार किया गया| ऐसा ही कानून घोषणा पत्र के लिए बनाने की जरूरत है| चुनावों में किए जाने वाले वायदे पूरा न करने पर जीतने वाले प्रत्याशी को दंडित करने की व्यवस्था होनी चाहिए ऐसी सरकार या प्रत्याशी को अयोग्य ठहराने तक की व्यवस्था होनी चाहिए|
पैड न्यूज़ यदि साबित हो जाती है तो संबंधित निर्वाचित सदस्य की सदस्यता समाप्त करने का अधिकार चुनाव आयोग को है| ऐसा ही घोषणापत्र के मामले में भी हो सकता है| इसमें सदस्य के साथ राजनीतिक दलों की मान्यता प्रभावित होगी| क्योंकि ज्यादातर वायदे राजनीतिक दल द्वारा किए जाते हैं| इसलिए ऐसे दल जो घोषणा पत्र को पूरा नहीं करते उनका रजिस्ट्रेशन समाप्त करते हुए उनका चुनाव चिन्ह भी रद्द कर दिया जाना चाहिए|
भारत का प्रजातंत्र धीरे धीरे परिपक्व हो रहा है| पूरी राजनीति खराब है ऐसा नहीं है| फिर भी सत्ता के लिए नेता जीतने के लिए कोई भी वादा करने से परहेज नहीं करता| घोषणा पत्र लीगल फ्रेमवर्क में लाने से भारतीय लोकतंत्र मजबूत होगा, राजनेता और राजनीतिक दलों के प्रति विश्वास बढ़ेगा और समाज और राजनीति के बीच अविश्वास की जो खाई आज पैदा हो गई है उसे कम किया जा सकेगा|