स्टोरी हाइलाइट्स
श्रीकृष्ण:सांदीपनि की भविष्यवाणी श्रीकृष्णार्पणमस्तु (Sandipanis prediction)-काम्पिल्य की धरती पर गूंजे कुछ विचार और वाक्य, आगे चल कर
सांदीपनि की भविष्यवाणी
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -33
रमेश तिवारी
काम्पिल्य की धरती पर गूंजे कुछ विचार और वाक्य, आगे चल कर कितने अर्थपूर्ण हुए, देखते हैं! दुनिया ने श्रीकृष्ण को क्या माना और कितना जाना, यह तो बहुत बाद की बात है।
किंतु वायु विज्ञानी, जैसे किसी व्यक्ति के मुंह को देखकर भविष्यवाणी कर सकता है। मां कहे भले ही न किंतु वह भी तो अपने पुत्र के पांव पालने में देखकर अपने शिशु के भविष्य की कल्पना में खो जाती है। वैसे ही सांदीपनि ने श्रीकृष्ण के संबंध में कुछ कहा!
यादवों का वंश विस्तारश्रीकृष्णार्पणमस्तु-10
दोनों मित्र, राजा द्रुपद और आचार्य सांदीपनि श्रीकृष्ण के संबंध में चर्चा कर रहे थे। दोनों ही श्रीकृष्ण के प्रशंसक थे। द्रुपद श्रीकृष्ण, के संबंध में अधिक से अधिक जानने में उत्सुकता प्रदर्शित कर रहे थे। उनकी पुत्री द्रोपदी के भविष्य का प्रश्न और उनका अपना स्वार्थ था। द्रौपदी के विवाह को लेकर चिंतित थे, काम्पिल्यराज। सांदीपनि भी आत्मविभोर होकर अपने शिष्य की खूबियां गिनाते जा रहे थे।
श्रीकृष्ण के दिव्य गुणों और अलौकिक चातुर्य की चर्चा करते हुए आचार्य सांदीपनि ने द्रुपद से कहा था- "यदि ईश्वर मनुष्य के रुप में जन्म लेता तो वह कृष्ण जैसा होता!" गुरु का शिष्य के संबंध में ऐसा कहना शिष्य के लिए कितनी प्रशंसा का विषय है। परन्तु सामान्य लोगों के लिए भी प्रेरणा का विषय हो सकता है ताकि वे भी श्रीकृष्ण के पदचिन्हों का अनुसरण कर सकें।
कृष्ण को कृष्ण बनाने के पीछे तत्कालीन आर्य व्यवस्था के नीति, सिद्धांत और चरित्र निर्माताओं का हाथ था। आर्यों की गौरवशाली परम्पराओं का संवहन था कृष्ण के जीवन, चरित्र और निर्माण में। तब आर्य सभ्यता के प्रमुख स्तम्भ थे- वृद्ध परशुराम, वेद व्यास, सांदीपन, मुनि गर्ग और पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य।
चक्र सुदर्शन के बाद के श्रीकृष्ण श्रीकृष्णार्पणमस्तु-9
गर्ग की प्रवीणता के कारण ही कृष्ण का सुरक्षित जन्म संभव हुआ और जन्मते ही सकुशल गोकुल पहुंचाये जा सके। सांदीपनि ने आर्य संस्कृति के गौरव अंकपाद आश्रम में कृष्ण को दृष्टि प्रदान की। वेद व्यास ने जीवन का कर्तव्य पथ निर्धारित करने में सहयोग किया।
और धौम्य! उनका अपरोक्ष सहयोग यह था कि वनवास के समय उन्होंने पांडवों का दिशा निर्देशन किया। जो पांडव, कृष्ण के धर्मयुद्ध के प्रमुख स्तम्भ रहे। जहां तक कृष्ण की गीता और उसमें मनुष्य के जिस कर्म पथ का निर्देशन है, वह ज्ञान देने वाले ऋषि थे घोर आंगिरस। जो महान ब्रह्मवादी थे। ब्रह्मज्ञान के अतिशय विद्वान।
यह मुनि नेमिनाथ के नाम से प्रसिद्ध थे। वे यूपी के कस्बा सोरों जी के निवासी थे। नेमिनाथ एक यादव परिवार में जन्मे थे किंतु बाद में वे जैन हो गए। उनका एक आश्रम प्रयाग में था। यद्यपि वे अधिकांशतः विज्ञान क्षेत्र हिमालय में ही प्रवास करते थे। गीता ज्ञान की आधारभूत शिक्षा यद्यपि सांदीपनि की देन थी।
सिर और धड़ पडा़ श्री चरणों में……………………..श्रीकृष्णार्पणमस्तु-8
किंतु सांदीपनि ने ही उन्हें घोर आंगिरस के संबंध में बता रखा था। सांदीपनि ने द्वारिका में कहा था- श्रीकृष्ण! एक बार महान आंगिरस को गुरु अवश्य बनाना। मथुरा इतना प्राचीन नगर है कि यहीं पर यमुना किनारे ध्रुव ने भी तपस्या की थी। मूलतः मथुरा का नाम मधुपुरी था।
इसका अधिपति रावण का संबंधी लवणासुर का पिता मधु नामक राजा था। शत्रुध्न ने लवणासुर से और बाद में उग्रसेन के पूर्वजों ने शत्रुघ्न को पराजित करके मथुरा पर अधिकार कर लिया। उग्रसेन का राज्य हरियाणा (अग्रोहा से आगरा, मथुरा) तक फैला हुआ था।
हम कल द्रोपदी स्वयंवर की अंतर्कथा पर चर्चा कर रहे थे। हां तो श्रीकृष्ण की सफल नीति क्या और कैसी होना चाहिए। कृष्ण इस पर भारी गंभीरता से विचार कर रहे थे। आर्य संस्कृति के लिये अन्यायी जरासंध एक बडी़ बाधा था। कृष्ण चाहते थे कि हस्तिनापुर, पांचाल और द्वारिका, एक शक्ति हो जाये।
परन्तु द्रोणाचार्य द्वारा अहिछन्न को द्रुपद से विजय करने के बाद, अपमानित और क्रोधित द्रुपद अपमान का प्रतिशोध लेने को व्यग्र था। इसीलिये वह आर्यावर्त के सर्वाधिक योग्य धनुर्धर को ढूंढ रहा था ताकि जमाता बनाकर धनुर्विद्या के अप्रतिम आचार्य द्रोणाचार्य को पराजित किया जा सके।
चक्र सुदर्शन का प्रथम प्रयोग……………………श्रीकृष्णार्पणमस्तु -7
समस्या यह थी कि द्रोणाचार्य के पीछे संपूर्ण कुरु शक्ति थी। वह द्वारिका को संबंधी बनाकर द्रोणाचार्य को दंडित करना चाहता था। कृष्ण का एकमात्र शत्रु जरासंध था। कृष्ण चाहते थे कि द्रुपद को भी जोड़ लिया जाये। तब जाकर हस्तिनापुर, द्वारिका और पांचाल मिलकर जरासंध के दर्प को चकनाचूर कर सके।
परिदृश्य ऐसा था कि द्रोणाचार्य और द्रुपद अपने अपने कारणों से हठी हो गये थे। कृष्ण एक समन्वयवादी, उदार और तार्किक धर्माचरण वाले व्यक्ति थे। उनको यह ज्ञात हो चुका था कि पांडव जीवित हैं। आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों में उन सहित अर्जुन, कर्ण, दुर्योधन, विंद और अनुविंद ही थे।
धनुर्धर तो जरासंध भी था किंतु वह वृद्ध हो चला था। राजनैतिक दृश्य बादलों की घटाओं के सदृश्य उमड़ घुमड़ रहा था। कृष्ण को यदि धर्म का राज्य स्थापित करना था, तो इस ऊहापोह से निकलने का मार्ग भी उन्हीं को खोजना था।
कृष्ण प्रथम बार हस्तिनापुर आये थे वारणावत की घटना पर शोक व्यक्त करने। यहां उनको ठोस सबूत मिल चुके थे कि कुंती और पांडव जीवित हैं। हस्तिनापुर से कृष्ण को सीधे काम्पिल्य जाना था। प्रचलित जल मार्ग से। जिन जल मार्ग के किनारे आर्य सभ्यता के संवाहक आश्रम स्थापित थे।
संपूर्ण आर्यावर्त में वनप्रांतर और नगरों में फैले आश्रम राजनैतिक सूचनाओं के केन्द्र थे। क्योंकि सभी राजपुत्र इन आश्रमों में अध्ययन करने आते थे। ऋषि-मुनि सभी गुप्त जानकारियों से अवगत रहते थे। वे चूंकि आर्य संस्कृति के प्रणेता थे। कृष्ण उन सब के प्रिय और सर्वोत्तम पात्र थे।
जयोस्तु कृष्ण….श्रीकृष्णार्पणमस्तु-6
अत: कृष्ण का यह सूचना तंत्र अद्भुत, अनोखा और सटीक था। सांदीपनि के श्वसुर रूद्राचार्य, भतीजे श्वेतकेतु और पुत्र पुनर्दत्त कृष्ण के प्रमुख मित्र, सहयोगी थे। अंकपाद के साथी। मित्रो कथायें बहुत रोचक और रोमांचकारी हैं। परन्तु अति संक्षेप में प्रस्तुत करना पूर्णतः न्याय नहीं है। किंतु फेसबुक की भी एक गरिमा है।
आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु।