तलाश एक किताब की जो मुझे मुझसे मिला सके.. आत्मा की प्यास बुझा सके ... P अतुल विनोद
"IN THE SEARCH OF................A MIRACULOUS BOOK THAT CAN ENLIGHTEN MY SOUL"
"मुझे मुझसे जो मिला दे, ऐसी किताब ला
मेरी रूह को गिज़ा दे, ऐसी किताब ला।"
ये लेख एक साधक, लेखक, कवि और गजलकार दिनेश मालवीय “अश्क” की एक गज़ल पर आधारित है जो जिंदगी को नयी दिशा दे सकता है|
बहुत सारी किताबें पढ़ ली, ज्ञान का ढेर लगा लिया, जानकारियों का समुंदर हिलोरे लेने लगा| पोथी पढ़-पढ़ कर थक गया लेकिन पंडित न बन सका| आत्मा को सुकून ना मिला|
खुद को जानने के लिए इतना पढ़ा लेकिन जानना तो दूर ऐसा लगा कि खुद से दूर हो गया| इसलिए अश्क कहते हैं कि
मुझे मुझसे जो मिला दे ऐसी किताब ला|
यह किताब कोई बुक नहीं जो किसी प्रिंटिंग प्रेस में छपती हो| यह किताब तो आइना है स्वयं परमात्मा का प्रकाश है जो अंदर के अँधेरे में गुम हुयी आत्मा को प्रकट कर सकती है|
वास्तव में तुम कौन हो? कहां से आए हो? तुम्हारी असली पहचान क्या है? क्या कोई किताब यह बताने में सक्षम है| शब्दों के जाल हैं, पहेलियों की जलेबियां हैं, विद्वत्ता की पराकाष्ठा है, संदर्भों के ढेर हैं, कहावत, श्लोक, छंद, कोट्स सब कुछ हैं फिर भी मर्म नहीं है| मिलेगा भी कैसे? कागज के ढेर पर बैठकर दहकती आत्मा की प्यास बुझाई नहीं जा सकती| इसलिए अश्क के अशआर हैं|
“मुझे मुझसे जो मिला दे, ऐसी किताब ला, मेरी रूह को गिज़ा दे, ऐसी किताब ला।”
इस दुनिया में एक दूसरे के प्रति कितनी शिकायतें हैं? यह शिकायतें ही है जो दिल को कठोर बना देती है, शिकवे से भरा मनुष्य फिर बुरा बर्ताव करता है, यह शिकायतें कठोरता ले आती है, फिर जुबान से बरसते हैं आग और शोले| जिसको देखो उसके दिल में शिकवा है तो कितना है? यहां हर कोई असंतुष्ट है| बहुत छोटी जिंदगी है लेकिन कितने ज़ुल्म है ज्यादतियां हैं| हम सब एक दूसरे के हक और हुकूक का ख्याल रखें| कोई किसी को कसूरवार न ठहराये, न कहीं जुल्म हो ना ज्यादती, सब इंसान एक दूसरे के हमदर्द, अमन और सुकून का डेरा, खुशगवार की बहार जहां सरशार हो। यह सब कर सके ऐसी किताब मिलती नहीं| कर्म और आचरण को बदल दे ऐसी किताब मिलती नहीं| इसलिए अश्क निकलते हैं
“अखलाक और अमल को मेरे जो शिफा कर दे
,गिले दिल से सब मिटा दे, ऐसी किताब ला।”
यहां हर कोई एक दूसरे का हक छीनने को हम आमादा है| अपनी खुशियों की बुनियाद दूसरों की चाहतों की नीव खोदकर रखना चाहता है| छीना-झपटी का माहौल है| ऐसा लगता है कि बिना छीने कुछ मिलेगा नहीं| तब फिर एक अध्यात्मिक, कवि, मानवीय “ह्रदय” में सच को जानने की आग सुलगती है|
“दिल में सुलग रही है, तहकीके-हक की आग, इसे और जो हवा दे, ऐसी किताब ला।”
इंसान जीता है 99 के फेर में, दिन रात हिसाब-किताब में लगा रहता है| रिश्ते-नाते मे हिसाब, नौकरी-पानी में हिसाब| यहां तक की भक्ति में भी हिसाब| कितना दिया - कितना मिला? एक एक कदम का मूल्य लगाता है| खुद को बेच डालता है| सब कुछ उसने धंधा बना दिया है| जिस्म तो छोडिये दिलों के भी सौदे कर रहा है| इस सौदेबाजी की दुनिया से आजिज़ शख्स फिर ढूंढता है एक ऐसी किताब जो उसमे लगन लगा दे.. मगन कर दे बस दीवाना ही बना दे|
“कि मैं खूब जी लिया हूँ हिसाबो किताब में...दीवाना जो बना दे, ऐसी किताब ला।”
ईश्वर हर जगह छिपा हुआ है| कहते तो सब हैं बहुत देखने की कोशिश की दिखा नहीं| खुद को खूब मनाया, मान लो कि हर जगह ईश्वर है ,लेकिन झूठी दिलासाओं से उसका पता चलता नहीं| इसलिए अश्क की लेखनी से उदगार निकलते हैं|
“फूलों में, पत्तियों में, तारों में जो छुपा है
उसे सामने जो लादे, ऐसी किताब ला।”
सचमुच ये सोचने का समय है साहित्य शब्दों से भरा पड़ा है… पुस्तकालय में किताबों का अम्बार है लेकिन इनमे समाधान क्यूँ नही मिलता.. महाकवि तुलसीदास कहते हैं
वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुण
भाव पार न पावे कोई |
निसी गृहमध्य दीप की बातन्ह
तम निवृत न होई ||
जिस प्रकार रात्रि के समय घर के भीतर दीपक या प्रकाश की महिमा गाने से अन्धकार दूर नहीं होता, उसी प्रकार मात्र शब्दों में निपुणता प्राप्त कर लेने से भाव का सागर भी पार नहीं हो सकता
सभी महापुरुष इस एक विचार से सहमत हैं कि परमात्मा न बातों में है, न कल्पना में है | वह तो प्रत्यक्ष अनुभव में है | स्वामी विवेकानंद ने कहा - 'प्रत्यक्ष अनुभव ही यथार्थ ज्ञान है | केवल सिद्धांत विशेष में विश्वासी होना या नास्तिक होना, इन दोनों में कुछ भी अंतर नहीं |
शायर बशीर बद्र कहते हैं
काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के....दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
शब्दों का ज्ञान आत्मज्ञान नही बन सकता… अंतरतम की ज्योति जगाने वाली किताब ही असली किताब है|
यह गज़ल "अश्क" के ग़ज़ल संग्रह "अधूरी ग़ज़ल" से ली गयी है।