शिखंडी का यौन परिवर्तन
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -25
रमेश तिवारी
श्रीकृष्ण विपरीत परिस्थिति स्थितयों में भी काम करने की दक्षता रखते थे। सत्य तो यह है कि वे दो विपरीत ध्रुवों को जोड़ने में प्रवीण थे। वे भलीभांति जानते थे कि द्रुपद और द्रोणाचार्य एक दूसरे के शत्रु हैं। वे यह भी जानते थे कि यह पुराने दोेनों मित्र अब कभी एक नही हो सकते।
परन्तु, कृष्ण- किंतु, परन्तु, मित्र, शत्रु और अंत जैसे विलोमार्थी शब्दों का एक ही अर्थ जानते थे "सफलता" अपने मनोनुकूल करना। द्रुपद कृष्ण के गुरू सांदीपनी का बहुत सम्मान करते थे। द्रुपद की पुत्री याज्ञसेनी (द्रोपदी) तो स्वयं भी कृष्ण से विवाह करना चाहती थी। द्रुपद की प्राथमिकता भी कृष्ण थे।
कृष्ण से विवाह न होने की स्थिति में द्रुपद ने सोच रखा था कि वे द्रोपदी का विवाह जरासंध के पौत्र मेघसंधि से करवा देंगे। इधर दुर्योधन भी चाहता था कि वह द्रुपद का जामाता बने। द्रुपद कभी भी यह नहीं भूल पा रहे थे कि आश्रम के सहपाठी रहे द्रोणाचार्य ने उन्हें युद्ध में जीता है। जीता होता यहां तक भी ठीक था। किंतु उन्होंने तो अपने शिष्य अर्जुन से उन्हें बंधवा कर अपनी बात मानने पर बाध्य किया था। यही नहीं अर्जुन ने उन्हें बांधा भी कहां! जब कि वे मंदिर में पूजा करके निकल रहे थे।
परिदृश्य यह था कि द्रोपदी स्वयंवर में भाग लेने वाले यह सभी योद्धा अथवा राजकुमार एक दूसरे के शत्रु थे। यह सब भलीभांति जानते समझते हुए कृष्ण ने द्रुपद पुत्र शिखंडी को द्रोणाचार्य के पास भेज दिया। द्रुपद जीते जी, एक अपमानित राजा की तरह थे और कृष्ण ने इतने महान शत्रु द्रोणाचार्य के पास शिखंडी को भेज दिया। युक्ति, रणनीति और यह कौन-सी राजनीति है कृष्ण की।
तभी तो शस्त्र शिक्षक शंख द्वारा मिलवाये जाने के अवसर पर आश्चर्यचकित होकर द्रोणाचार्य ने शिखंडी से पूछा था! कृष्ण ने मेरे पास भेजा! तुम्हें। कूटनीतिज्ञ कृष्ण ने भेजा है तुम्हें। इसमें कोई राजनीति ही होगी। परन्तु कृष्ण के किसी कदम में राजनीति न हो यह संभव ही नहीं। परन्तु वह राजनीति। इतनी परतों के पीछे छिपी रहती कि चतुर से चतुर राजनेता भी उसको समझ नहीं पाते थे। 'प्याज के छिलके की तरह परत दर परत। तो प्याज की गठान, भी कहीं मिलती है'?
कृष्ण ने ब्राह्मण के सत्कार और स्वाभिमान को शिखर तक पहुंचाने वाले राजनैतिक शब्द सिखा कर ही शिखंडी को भेजा था। अत: जब भी शिखंडी द्रोणाचार्य की प्रशंसा कर अपनी समस्या रखता, द्रुपद लालायित होकर, उत्कंठा में पूछते- क्या कृष्ण ने ऐसा कहा है, मेरे बारे में! कृष्ण जिससे अपना काम निकालना चाहते थे, निकाल ही लेते थे। द्रोणाचार्य को तो उन्होंने मानों सुई के छेद में धागे की तरह पिरो लिया।
द्रोणाचार्य ने शिखंडी की वेदना सुनी। अपने स्त्री रहते एक स्त्री से विवाह का संकट, युद्ध की संभावना, और अपमान की बात बताई। स्वयं में, स्वयं से संघर्ष का मुद्दा उठाया। द्रुपद का ब्राह्मण पसीज गया। द्रोणाचार्य द्रवित होकर बोले! शिखंडी.! मैं एक यक्ष को जानता हूँ। वह यौन परिवर्तन करता है। आचार्य है। अभी हिमालय की तराई में कहीं है।
मेरठ के समीप। और द्रोणाचार्य ने शिखंडी को स्त्री जीवन से मुक्ति दिलाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उस यक्ष का नाम था स्थूणाकर्ण। अलकापुरी (हिमालय) के स्वामी कुबेर का एक अधिकारी था वह। वह अभी अभी यौन शास्त्र का विशेषज्ञ हुआ था। उसने शिखंडी को पहले सब भला बुरा समझाया। कहा मैं विशेषज्ञ तो हूं किंतु शल्य क्रिया कष्टकर है। वेदनापूर्ण। मेरे पास नि:संतान दम्पत्ति भी आते हैं। शल्यक्रिया मेरा प्रिय कार्य है। तुम यदि अपार कष्ट सह लो तो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाएगा। तुमको संपूर्ण पुरुष बना दूंगा।
पाठकगण समझ लें कि यह शल्य चिकित्सक था कौन? स्थूणाकर्ण ने शिखंड को बताया- मेरे पूर्वज महायक्ष सुमन्यु बहुत धुरंधर यौन चिकित्सा विशेषज्ञ थे। उनकी पत्नी का नाम था समा। वे हिमालय की गुफा में रहते थे। सबसे पहले उन्होनें मनु के पुत्र इल की शल्यक्रिया की थी। मनु के बड़े पुत्र इल एक बार शिव के क्रोध से स्त्री हो गये। अब वे इला नाम से जाने जाने लगे। उनका विवाह चंद्रमा के पुत्र बुध से हो गया। उनके संसर्ग से पुरुरवा नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। बाद में इला के अंग में फिर से परिवर्तन के लक्षण दिखाई देने लगे।
तब सुमन्यु ने पुन: उनकी शल्यक्रिया की। अब इला, सुद्युम्न नामक राजा हो गये। (मित्रों इला और सुद्युम्न के वंशजों ने आर्यावर्त में पीढिय़ों तक राज किया। पुरुरवा के वंशज आयु, नहुष ययाति, यदु और कृष्ण भी हैं)। स्थूणाकर्ण ने शिखंडी के प्रति पूर्ण संवेदना दिखाई। विश्वास दिलाया। उसकी अत्यंत कष्टप्रद शल्यक्रिया प्रारंभ की।
अब शिखंडी भी जीवन के प्रति पूर्ण आस्थावान हो चुका था। कृष्ण का दृष्टिकोण और द्रोणाचार्य का मार्गदर्शन उसका संबल था। शिखंडी की शल्यक्रिया प्रारंभ हुई। शिखंडी को मूर्छित अवस्था में अनुभूति होती- जैसे उसके शरीर में तीक्ष्ण, धारदार छुरियां चल रही हैं। कभी कभी उसको नीम की पत्तियों की गंध तो कभी तुलसी रस का आभाष होता। कभी हल्दी के अनुलेप की अनुभूति होती तो कभी चंदन लेप की। नवीन और गुणकारी पत्तियों को घी में तर करके घावों पर रखा जाता। कड़वे क्वाथों तथा कसैली औषधियों का पान, प्रतिदिन आवश्यक रूप से कराया जाता था।
फिर धीरे धीरे रसाहार फलाहार और स्वादहीन पथ्यों का भोजन प्रारंभ हुआ। और फिर योगाभ्यास, प्राणायाम और ध्यान के सत्र चले। शिखंडी को शल्यक्रिया के बडे़ कठिन दौर से गुजरना पडा़। हां, पहले जिस पुरुष वेशधारी राजपुत्री को शिखंडी कहा जाता था। किंतु अब स्थूणाकर्ण ने शिखंडी को 'सत्य में ही एक रौबीला पुरुष' बना दिया। संपूर्ण पुरूष।
शिखंडी के काम्पिल्य में लौटने और फिर क्या, फिर क्या- की कथा आगे। आज की कथा बस यहीं तक। तब तक विदा।
धन्यवाद।