श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह श्रीकृष्णार्पणमस्तु -26


स्टोरी हाइलाइट्स

श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह श्रीकृष्णार्पणमस्तु -26 ................................shri-krishnas-chakravyuh-shrikrishnarpanamastu-26

श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह
                                                                       श्रीकृष्णार्पणमस्तु -26
रमेश तिवारी 
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि वे सभी पक्षों पर भारी पड़ जाते थे। आज हम तत्कालीन आर्यावर्त की ऐसी ही एक सुन्दर, मनोहारी और जटिलताओं से भरी कथा पर चर्चा करेंगे। कृष्ण ने हस्तिनापुर, द्वारिका और काम्पिलय के कितने ही चक्कर काटे होंगे। संभवतः वे महाभारत की पटकथा लिखने जा रहे थे। नये सिरे से तत्कालीन महाशक्तियों को तौल रहे थे। नये समीकरण बनाने की दृष्टि से ही उन्होंने अपने गुरु,और धनुर्विज्ञान के पंडित तथा काम्पिल्य नरेश द्रुपद के सम्माननीय मित्र सांदीपनी की आज्ञा से काम्पिल्य जाने की ठानी।

हस्तिनापुर में महारानी सत्यवती से उन्हें ज्ञात हो चुका था कि पांडव जीवित हैं और राक्षसावृत्त में रह रहे हैं। तब राक्षसावृत्त और नागलोक का क्षेत्र गंगा और यमुना के बीच गुजरात तक फैला था। काठियाबाड़ तक। कृष्ण हस्तिनापुर से नाव द्वारा एकचक्र पहुंचे। वहां पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि और वहीं ठहरे वेदव्यास से मिले। फिर अपने मातामह नागराज कर्कोटक से मिले। और सभी स्थितियों को भांप कर काम्पिल्य चले गए।

शिखंडी का यौन परिवर्तन : श्रीकृष्णार्पणमस्तु- 25
यह बात तब की है जब पुत्रेष्टि यज्ञ में ऋषि याज और उपयाज द्वारा आयुर्वेद की औषधियों से बनाए गए पौष्टिक पदार्थ से द्रुपद की रानी, ध्रृष्टध्युम्न और याज्ञसेनी (द्रोपदी) को जन्म दे चुकीं थीं। और द्रोपदी के अनुपम सौन्दर्य की छटा की सुगंध संपूर्ण आर्यावर्त में फैल चुकी थी। और! आगे देखिये!

याज्ञसेनी (द्रोपदी) स्वयंवर की गुत्थी के केन्द्र में मात्र श्रीकृष्ण ही थे। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी था कि न तो श्रीकृष्ण कांपिल्य नरेश के कोई संबंधी थे और न ही उन्हें किसी ने यह जबाबदारी सौंपी थी कि हे.. नटवरलाल, आप पधारिये और याज्ञसेनी के हाथ पीले करवा दीजिये।


कृष्ण स्वयं ही मर्ज बन जाते और सभी मर्जों की दवा तो वे स्वयं थे ही। द्रोपदी स्वयंवर के मूल में भी मात्र कृष्ण ही थे। स्वयंवर के नियोजक और परिणाम के निर्णायक कृष्ण के गुरू सांदीपनि और स्वयंवर पुरुष कृष्ण के अंतरंग सखा अर्जुन। हां एक बात और भी महत्वपूर्ण थी कि जो याज्ञसेनी स्वयं कृष्ण से विवाह करना चाहती थी, उसको तो उन्होंने पोट पुचकार कर अपनी बहन बना लिया। और तत्कालीन, जितने भी शक्तिशाली राजा, नरेश या फिर सम्राट जरासंध ही क्यों न हो, सबको उनकी हैसियत भी दिखा दी। स्वयंवर में। स्थितियां उलझीं हैं। 

कृष्ण अर्थात जीवन: श्रीकृष्णार्पणमस्तु-24
आर्यावर्त के राजन्य वृन्द में कौतूहल है, धनुर्यज्ञ का। सभीे धनुर्धरों और राजकुमारों ने सौन्दर्य की मूर्ति द्रोपदी को वधु के रूप में प्राप्त करने की ललक पाल रखी है। जरासंध दुर्योधन, अश्वत्थामा, मेघसंधि, उद्धव सात्यकी, शिशुपाल, सभी धनुर्धरों में द्रोपदी के सौन्दर्य के प्रति ललक है। ललक हो भी क्यों न..! द्रोपदी थी ही सौन्दर्य की अनुपम मूर्ति। द्रुपद का अभीष्ट था कि शत्रु द्रोणाचार्य को सबक सिखाना है, और वह भी रूप, लावण्य की स्वामिनी याज्ञसेनी के माध्यम से। 

निर्मल ह्रदय बलदाऊ- श्रीकृष्णार्पणमस्तु -23

इस प्रकरण में कृष्ण स्वयं ही सर्वेसर्वा बन बैठे। द्रुपद परिवार की प्रत्येक गति के विधि बन गये थे श्रीकृष्ण.! द्रुपद के मुख्य शत्रु थे द्रोणाचार्य। परन्तु द्रुपद को अभी तक यह भी पता नहीं चल सका था कि वही द्रोणाचार्य उनके पुत्र शिखंडी के नवजीवन दाता भी हैं। कितनी अपमान जनक और हास्यास्पद स्थिति होती द्रुपद की, जब यह बात सार्वजनिक होती कि उनका पुत्र वास्तव में पुत्री था। 


वह भी ऐसी पुत्री कि जिसका विवाह उन्होंंने दूसरे राजा की पुत्री से करवा दिया था.! 'राम राम'! यह कैसा अनर्थ। एक कन्या का विवाह,वह भी दूसरी कन्या के साथ। परन्तु कृष्ण ने पूरे द्रुपद परिवार को पता ही नहीं चलने दिया कि इस गंभीर समस्या का निदान हो चुका है। और वह भी उनके परम शत्रु द्रोणाचार्य के माध्यम से। शिखंडी के माध्यम से द्रोडा़चार्य भी कृष्ण के मुरीद हो ही चुके थे।अपनी प्रशंसा सुन सुन कर!

श्रीकृष्णार्पणमस्तु -22  Sri KrishnaNarpanamastu-22
अब कृष्ण ने द्रुपद को एक कठिनाई में डाल दिया। कह रहे थे कि एक बार ही सही द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा और शकुनि से अवश्य मिल लीजिये। और यह बात भी उन्होंने द्रोपदी से कहलवाई। अरे! एक तरफ तो कहते है कि द्रोपदी का विवाह दुर्योधन से नहीं होने दूंगा- इसका कारण हम आगे जानेंगे। दूसरी ओर दुर्योधन के अभिन्न मित्र अश्वत्थामा और मामा शकुनि को मिलवा भी रहे हैं। 

दुर्योधन की चौकडी़ शकुनि, कर्ण और द्रोण पुत्र अश्वत्थामा, का दल 30 भाइयों और 4 मामाओं के साथ आया था। द्रोणाचार्य इस बात के विरुद्ध थे कि दुर्योधन का विवाह द्रोपदी से हो। परन्तु दुर्योधन, द्रोपदी के सौम्य स्वरूप पर मरा जा रहा था। अंततः द्रुपद कुरुु् पुत्रों से मिले। किंतु साफ साफ कह दिया। विवाह उस राजा से ही होगा जो स्वयंवर में विजयी होगा। 

इस प्रकरण में कृष्ण की रुचि यह थी कि वे द्रोणाचार्य से यह संकल्प करवा चुके थे कि किसी भी कुरुपुत्र (वंशज) के द्रोपदी से विवाह होने पर वे हस्तिनापुर छोड़कर नहीं जायेंगे। इस प्रकरण में कृष्ण ने अश्वत्थामा का भरपूर उपयोग किया था,अपने पिता द्रोणाचार्य को सहमत करने में। क्योंकि दुर्योधन के अलावा कर्ण और अश्वत्थामा भी द्रोपदी को प्राप्त करना चाहते थे। परन्तु कृष्ण यह सब न चाहते हुए भी नाटक मात्र कर रहे थे।

पौषमास की एकादशी को स्वयंवर की तिथि निश्चित थी। राजागण काम्पिल्यनगर में आ चुके थे। पवित्र गंगा के किनारे पर योजनों दूर तक शिविर लगे थे। प्रत्येक राजा मूल्यवान से मूल्यवान भेंट लेकर द्रुपद को उपहार दे रहे थे। मानो स्वयंवर पूर्व ही वे वधु का मूल्य चुका कर राजा से आश्वासन चाहते थे कि द्रोपदी उन्हीं को मिल जाये। द्रुपद सभी को एक ही उत्तर देते। सांदिपनी ऋषि ने जो नियम निर्धारित किये हैं, उनके अनुसार ही निर्णय होगा।

चूंकि यह धनुर्यज्ञ था। निर्णय भी धनुष के तीव्र बाण से मछली की आंख की पुतली भेदकर ही होना था। महान धनुर्धर कृष्ण प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो रहे थे। कर्ण सूतपुत्र होने के कारण भाग नहीं ले सकता था। उच्चकोटि के धनुर्धर जरासंध स्वयं भाग न लेकर अपने पौत्र मेघसन्धि के साथ द्रोपदी का विवाह करवाना चाहते थे। पांडव वारणावत के प्रासाद में मारे (?)जा चुके थे। वे ज्ञात रूप में वहां थे भी नहीं। महत्वपूर्ण भूमिका उद्धव और शिखंडी की कैसे थी? और श्रीकृष्ण की कौन सी अति महत्वपूर्ण चाल अभी बाकी थी। 

आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा। 

                                           श्रीकृष्णार्पणमस्तु।