अध्यात्म और दर्शन
विज्ञान के विकास और विशेषतः क्वांटम फिजिक्स के विकास के साथ ही विज्ञान ' अध्यात्म ' के उन बिंदुओं के उद्घाटन की ओर बढ रहा है जिन्हें भारत के ऋषि व्यक्तिगत चिंतन द्वारा सैकडों साल पूर्व उद्घाटित कर चुके थे. यही कारण है कि आइंस्टाइन ने ' धर्म और विज्ञान ' को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा था . चूँकि अभी पूर्व के दर्शन और अध्यात्म के संदर्भ विज्ञान की नजरों में पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुए इसलिये हम अभी विज्ञान और गणित के आधारीय नियमों के आधार पर ही गीता और वैदिक सिद्धांतों की व्याख्या कर सकते हैं --
अध्यात्म और दर्शन की शब्दावली के कुछ शब्द अभी विज्ञान की दृष्टि से ' अपरिभाषित ' हैं जिनके ऊपर गहन शोध किया जाना बाकी है.उदाहरण के लिये हिंदू दर्शन संसार के प्रत्येक कण को 'जीवित' और 'चेतनामय' मानता है जबकि जीव विज्ञान कुछ लक्षणों के आधार पर 'जीवन' की कसौटी निर्धारित करता है . पर अगर 'ऊर्जा और द्रव्यमान' के आधार पर व्याख्या की जाये तो एक कंकर भी 'चैतन्य' यानि कि जीवित माना जा सकता है क्योंकि उसका अस्तित्व भी उसी 'ऊर्जा - द्रव्यमान' समीकरण के आधार पर है जिस पर किसी' 'जीवित जीव' का अस्तित्व .तो वे 'मूल शब्द' ( terms ) क्या हैं ----
१-- आत्मा क्या है ----- निश्चित रूप से एक रहस्यमय ऊर्जा जो संसार के समस्त जड और चेतन में व्याप्त है . औपनिषदक विचारधारा इसे परमात्मा का अंश मानते हुए अटल ध्रुव शाश्वत सत्ता मानती है और इसके ऊर्जात्मक रूप के अनुसार ठीक भी है पर बुद्ध ने इसकी अटलता , अपरिवर्तनीयता और जीव से संबंध पर सवाल उठाया . आज की भाषा में कहें तो उन्होंने एक कोशिकीय जीवों से बहुकोशिकीय जीवों में ' आत्मा के स्वरूप में संक्रमण ' पर सवाल उठाया और पर्याप्त शब्दावली के अभाव के आधार पर इसे ध्रुव और शाश्वत होना अस्वीकार कर दिया . परंतु उनके सामने एक दूसरा सत्य खडा था और वो था कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म . और तब उन्होंने अपनी मेधा का प्रयोग करते हुए स्थापना दी कि जन्म इच्छाओं का होता है ठीक किसी लहर की भांति जहाँ पिछली लहर ( पिछले कर्म ) अगली लहर को उत्पन्न करती है पर यथार्थ में जल केवल ऊपर और नीचे होता है . २-- इच्छा क्या है ----- यह भी ऊर्जा का ही एक प्रकार है जिसे हम महसूस कर सकते हैं जो जीव को कर्म के लिये प्रेरित करती है . इसके बिना आत्मा और ब्रह्मांड अस्तित्व में ही नहीं आते . इसी लिये आर्ष ग्रंथों में कहा गया है कि ' ब्रह्म ' ने कामना की कि मुझे ' होना 'चाहिये और वह ' हो ' उठा . पर यह अवधारणा ब्रह्म की " निर्लिप्त निराकार व कालातीत ' होने की अवधारणा पर सवाल उठाती थी इसलिये बाद में स्थापना दी गयी कि ब्रह्म में स्वतः उठने वाले क्षोभ से ब्रह्मांड बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई . अतः इसी क्षोभ को ही ' इच्छा ' का प्रारंभिक रूप माना जा सकता है परंतु यह अकस्मात और स्वतः उत्पन्न हुआ था अतः ब्रह्मांड की उत्पत्ति बिना कारण - कार्य के स्वतः हुई . और प्रारंभिक विक्षोभ को हम पहली इच्छा और असंतुलन का प्रारंभ मान सकते हैं जिसके पश्चात ब्रह्मांड का निर्माण प्रारंभ हुआ . आज की भाषा में इसे " हमारे ब्रह्मांड " की एंट्रॉपी भी कह सकते हैं जिसके कारण ब्रह्मांड में निरंतर संतुलन और प्रतिसंतुलन की एक हौच पौच रहती है परंतु इस नाजुक असंतुलन से ही ब्रह्मांड संतुलित रूप से गतिमान रहता है और उसका का कारोबार चलता है यानि कि ' इच्छा ' भी ब्रह्मांड के संचालित करने वाली एक शक्ति है . तो..... जब यह ' इच्छा ' रूपी ऊर्जा ' आत्मा ' रूपी ऊर्जा को ढँकती है तो जन्म होता है ' सूक्ष्म शरीर ' का जो अपनी इच्छाओं के कारण , उसकी पूर्ति के लिये ' कर्म ' करना चाहता है . यही कारण है कि हम अपनी इच्छाओं में इतने आसक्त और लिप्त होते हैं . इस प्रकार इस सिद्धांत से सनातनी विचारधारा और बुद्ध की विचारधारा , दोंनों से से पुनर्जन्म की व्याख्या हो जाती है . ३-- कर्म क्या है ---- कर्म भी ऊर्जा का ही एक और प्रकार है जिसे हम ' इच्छाओं ' के निर्देशन में करते हैं जिसका परिणाम होता है -- ' फल ' अर्थात द्रव्यमान . इसीलिये बढते अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार ' आत्मा ' पर ' इच्छा ' , ' कर्म ' और ' कर्म फल ' के आवरण चढता चला जाता है और ' जीव ' अधिकाधिक इस ब्रह्मांड में आवागमन के चक्र में फंसता चला जाता है तो अगर कोई इच्छाओं के अधीनहोकर कर्म करने के स्थान पर निष्काम कर्म अर्थात अनासक्त कर्म करे तो --- निश्चित रूप से फल तो आयेगा ही परंतु आत्मा के ऊपर ना केवल इच्छाओं की नयी पर्तें चढना बंद होंगी बल्कि इस कर्म रूपी ऊर्जा के द्वारा पुराने कर्म फल भी नष्ट होना प्रारंभ हो जायेंगे क्यों कि अनासक्ति होने पर उन पुरातन इच्छाओं के होने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा और वे स्वतः विलोपित हो जायेंगी . और ...तब इच्छा , कर्म और कर्मफल के हटने से विशुद्ध आत्मा प्रकट होगी अपने पूर्ण ' ब्रह्म ' स्वरूप में , ठीक वैसे ही जैसे ऊपर की राख हट जाने पर अंगारा प्रकट हो जाता है . ४ -- फल क्या है --- इच्छाओं के निर्देशन में ' परमाणुओं को संयोजित कर एक आकार धारण करना ही फल है . द्रव्यमान की मूल इकाई ' परमाणु ' है पर उसका चरम विकसित और चेतन रूप है ' जीवन ' और जीवन में भी सबसे ' पूर्ण चैतन्य रूप है ' -- " मानव " जिसकी चेतना का स्तर इतना ऊँचा होता है कि वह इच्छाओं के बंधन से मुक्त होकर अपने वास्तविक ऊर्जा रूप अर्थात " आत्मा " को जान सकता है और ब्रह्मांड के नियमों से मुक्त होकर पुनः उसी ब्रह्म से जुड सकता है जिससे कभी वो पृथक हुआ था . इसी को ' मोक्ष ' कहा गया है . परंतु मनुष्य इच्छाओं के अधीन होकर , शरीर और अहंकार की तॄप्ति को ही वास्तविकता समझता है जिसके कारण ही ये संसार ब्रह्मांड के उन भौतिक नियमों पर चलता है जिनका निर्धारण ' हमारे ब्रह्मांड ' के जन्म के समय ही हो गया था . ५-- मोक्ष क्या है --- जब कोई मनुष्य अपनी जैविक ऊर्जा का संयोग ब्रह्मांड की उस ऊर्जा से करा देता है जो इच्छाओं और कर्मों के आवरणों में ढंकी हुई है और जिसे हम आत्मा कहते है , तो उसी पल हमें अपने वास्तविक " ब्रह्म स्वरूप " अर्थात " मूल ऊर्जा रूप " का ज्ञान हो जाता है और तब ये जगत एक स्वप्न के समान दिखाई देता है . ( ये केवल सैद्धांतिक प्रेजेटेंशन है क्यों कि इसका वास्तविक अनुभव व्यवहारिकता में कठिन है बहुत ही कठिन ) ६-- मोक्ष अर्थात ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग क्या हैं --- गीता के अनुसार यह " योग " है जिसका अर्थ कृष्ण ने बताया है " परमात्मा या ब्रह्म से जीव का योग " . गीता में योग के अनेक प्रकारों का विवरण है जिन्हें मोटे रूप से सांख्य , ध्यान , कर्म और भक्ति में बाँटा जा सकता है . अर्थात कृष्ण प्रत्येक को अपने ' स्वधर्म ' अर्तात अपनी प्रवृत्ति के अनुसार चुनाव की छूट देते हैं . कई विद्वान इसमें विरोधाभास ढूँढते हैं परंतु उनकी उद्घोषणा है कि प्रत्येक मार्ग अंततः ' उन ' तक ही लेकर आयेगा . कैसे ? वैज्ञानिक नजरिये से क्या इसकी व्याख्या संभव है ?? कृष्ण ने इसके संकेत स्पष्ट दे रखे हैं पर फिर भी क्यों न हम अपने तार्किक नजरिये से उनकी उद्घोषणा को परख लें ---- १- सांख्य या ज्ञान --- इसके अनुसार जीव में " अकर्ता " का भाव होता है और वह कर्म करते हुए भी उसके प्रति स्वयं को ' उससे ' परे रखता है जिसके कारण वह ' कर्म फल ' के प्रति भी ' अनुत्तरदायित्व ' का भाव रखता है . यह विधि बहुत कुछ बौद्ध विधि और अन्य नास्तिक दर्शनों के समान है पर कृष्ण अधिकारपूर्वक घोषणा करते हैं कि कर्म और कर्मफल के प्रति ' अनुत्तरदायित्व ' का भाव उस जीव को अंततः ' इच्छाओं ' से भी मुक्त कर देता है और तब भी वह आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है . ( यहाँ कपिल और बुद्ध ' ब्रह्म ' या ' ईश्वर ' के विषय में मौन हैं ) २- ध्यान --- इसे हठ योग भी कहा जा सकता है जिसमें शरीर को शुद्ध ( पंच कर्मादि ) कर भ्रू मध्य या नासिकाग्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है . यह अत्यंत कठिन विधि है और इसमें सामान्य साधक को किसी योग्य गुरू की आवश्यकता होती है . इस मत के अनुसार जीव की समस्त जैविक ऊर्जा ( कर्म व कर्मफल सहित ) " मूलाधार चक्र " से होती हुई विभिन्न चक्रों को पार करती हुई " सहस्त्रार " तक पहुँचती है जो ब्रह्म रूपी परम ऊर्जा का द्वार है और जहाँ पहुँच कर जीव के समस्त कर्मों , कर्म फल और इच्छाओं का विलीनीकरण हो जाता है . परंतु साधारण शरीर वाले योगी प्रायः लौटते नहीं और उसी समाधि अवस्था में ' ब्रह्मरंध्र ' से उनकी आत्मा का लय ' ब्रह्म ' में हो जाता है . कुछ सूफी भी इस हिंदू योग पद्धति से परिचित थे और उन्होंने इन चक्रों का विवरण अन्य नामों से दिया है . ३- कर्म --- यह गीता की सबसे चर्चित विधि है जिसमें सांख्य और योग को दुःसाध्य मानते हुए जीव को कर्म करने का सुझाव दिया गया है परंतु उसे ' निष्काम ' अर्थात केवल कर्म में ही आसक्ति रखने का अधिकार दिया गया है फल में नहीं ( साम्यवादियों और तथाकथित दलित चिंतकों ने इसका सबसे ज्यादा अनर्थ किया है ) . कृष्ण का कहना है कि फल में आसक्ति होने से वर्तमान कर्म में तो एकाग्रता बाधित होगी ही साथ फल में आसक्ति से नयी इच्छाओं का बंधन भी आत्मा के ऊपर बन जायेगा . परंतु अगर निष्काम कर्म किया जाये तो चाहे जो फल प्राप्त हों परंतु नयी इच्छायें न होने से पुराने कर्म और कर्मफल क्रमशः नष्ट होते चले जायेंगे और अंततः ' आत्मा ' अपने विशुद्ध ' ब्रह्म ' स्वरूप में प्रकट हो जायेगी और मोक्ष को प्राप्त होगी . ( इसमें पूर्वकर्मों के फल सामने आते तो हैं पर पूर्ण साधक उनसे भी अनासक्त रहता है ) ४- भक्ति -- इसे कृष्ण ने सर्वाधिक सरल उपाय माना है परंतु ' सकाम ' और ' निष्काम ' भक्ति में बांट कर एक चेतावनी भी दी है . सकाम भक्ति से जीव अपने ' आराध्य ' के स्वरूप को प्राप्त होता है परंतु उसकी मुक्ति असंभव होती है क्यों कि इच्छाओं और कर्मों का बंधन समाप्त नहीं होता . जबकि ' प्रेम ' जो बिना आकांक्षा , बिना इच्छा का एक अनजाना ' निष्काम ' भाव है , उसके द्वारा किसी भी " माध्यम " ( मूर्ति , स्वरूप , नाम ) से परम सत्ता से अगाध रूप से जुड जाता है तो उसकी समस्त इच्छायें , समस्त कर्म और कर्मफल ' क्षण मात्र ' में विलीन हो जाते हैं जैसे ' अग्नि ' में सोने के ऊपर लिपटी ' मैल ' की पर्त नष्ट हो जाती है और खरा सोना प्रकट हो जाता है . ( पर कई बार माध्यम की आसक्ति उसे अंतिम पद से रोक भी देती है जैसे कि रामकृष्ण परमहंस ने वर्णित किया था कि किस तरक ' काली ' में उनकी आसक्ति ने उन्हें आखिरी चरण में जाने से रोक रखा था ) ..चैतन्य , मीरा और रामकृष्ण परमहंस इसी माध्यम को सर्वाधिक सरल और उचित मानते थे . तो स्पष्ट है कि कृष्ण के प्रत्येक मार्ग में ' जीव ' का संपर्क ' आत्मा ' के माध्यम से अपने असली ' ब्रह्म स्वरूप ' से होता है तो मोक्ष हो जाता है . पर एसी स्थिति में कर्म सिद्धांत का क्या ? विशेषतः ' ध्यान ' और ' भक्ति ' जैसे ' शॉर्टकट ' मामले में जहाँ कृष्ण उद्घोषणा करते हैं कि तूने चाहे जो किया हो बस तू एक बार मेरी शरण में आ भर जा ...
तो पहले तो यह जान लें सभी लोग कि यहाँ कॄष्ण कोई एक केवल यदुवंशी कृष्ण नहीं बल्कि ' योगयुक्त साक्षात परब्रह्म ' बोल रहे हैं . दुसरी बात वे कह रहे हैं कि मैं तुझे सारे पापों सारे कर्म फलों और इच्छाओं से मुक्त कर दूँगा ...कैसे ....क्यों कि ये इच्छायें , ये कर्म , ये कर्म फल , ये आत्मा ...ये सभी ऊर्जायें उस ' ब्रह्म रूपी ऊर्जा ' से ही तो उत्पन्न हुई थीं तो समस्त द्रव्यमान और ऊर्जा के विभिन्न रूप इस परम ऊर्जा के संपर्क में आते ही क्षण मात्र में अपना मूल रूप प्राप्त कर लेते हैं और एसा जीव स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ठीक वैसे ही जैसे किसी भी संख्या का गुणा शून्य से करने पर वह बिना किसी चरण के तत्काल शून्य हो जाती है . इस तरह से भक्ति और योग मार्ग जैसे "शॉर्टकट" से भी कॄष्ण के कर्म सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होता है.