सम्राट की आत्मा कांप उठी-श्रीकृष्णार्पणमस्तु -28
स्टोरी हाइलाइट्स
श्रीकृष्ण :देश काल और परिस्थितियों को जानकर ही हम श्रीकृष्ण जैसे अति बौद्धिक महापुरुष के गौरव को समझ सकते हैं। द्रोपदीे स्वयंवर.........
सम्राट की आत्मा कांप उठी
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -28
रमेश तिवारी
देश काल और परिस्थितियों को जानकर ही हम श्रीकृष्ण जैसे अति बौद्धिक महापुरुष के गौरव को समझ सकते हैं। तब का आर्यावर्त अर्थात विंध्याचल से लेकर अपगण (अफगानिस्तान) तक का क्षेत्र अनेक राजाओं के अधीन था। सम्राट जरासंध, चक्रवर्ती बनना चाहता था। वह अपने साम्राज्य की सीमावृद्धि के सभी उपाय कर भी रहा था परन्तु श्रीकृष्ण के अभ्युदय ने उसकी योजनाओं पर पानी ही फेर दिया। जरासंध अपनी राजधानी गिरिव्रज (पटना) से और श्रीकृष्ण द्वारिका और मथुरा से कार्य संचालन करते थे।
कौरवोँ के हस्तिनापुर और द्रुपद जैसे शक्तिशाली पांचाल राज्य को छोड़कर आर्यावर्त के शेष राज्य, जरासंध के दबाव में थे या तो श्रीकृष्ण के मित्र राज्य बनते जा रहे थे। हस्तिनापुर और पांचाल दोनों ही शक्तिशाली राज्य थे। श्रीकृष्ण के लक्ष्य में थे। समस्या यह थी कि कौरवों का युवराज दुर्योधन अपने चचेरे भाई पांडवों को समाप्त कर देने पर तुला था। मात्र, चाचा विदुर और ममेरे भाई कृष्ण ही पांडवों के हितचिंतक थे। और वे ही पांडवों की सुरक्षा करते थे। संघर्ष ने इतना तूल पकड़ लिया था कि जरासंध ने तो कृष्ण के खिलाफ साल्व को भेजकर आर्यावर्त के इतिहास में पहली बार विदेशी शक्ति (कालयवन) को भी आमंत्रित कर लिया था।
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कृष्ण, द्रोपदीे स्वयंवर के माध्यम से इन दोनों शक्ति शाली राज्यों को संबंधी बनाकर अधर्मियों और अन्याई तत्वों के खिलाफ एक बडी़ शक्ति खडी़ करना चाहते थे। स्वयंवर में श्रीकृष्ण की अति सक्रियता का कारण भी यही था। वारणावत कांड के बाद मृत घोषित पांडव राक्षसावर्त में देखे गये थे। आर्यो के दिशा निर्देशक वर्ग ऋषियों के आश्रमों के माध्यम से यह प्रामाणिक सूचना कृष्ण को मिल चुकी थी कि पांडव नागलोक और राक्षसावृत में हैं।
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कृष्ण की परदादी मारिषा नागकन्या थीं। अत: वनांचलों में फैली नाग जाति के राजा कर्कोटक कृष्ण को सहयोग कर रहे थे। फिर राक्षस जाति से भी पांडवकुमार भीम का संबंध जुड़ चुका था। राजकुमारी हिडिम्बा का विवाह भीम से हो चुका था। वारणावत (मेरठ के समीप) से बचकर भागने में सफल रहे पांडवों की क्षण, प्रतिक्षण की जानकारी वनों से इन्हीं राक्षसों और नागों के जरिये मिल रही थी। और फिर यही जानकारी महर्षि धौम्य और वेद व्यास के शिष्यों द्वारा कृष्ण को भेजी जाती थी। उद्धव और विदुर की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी।
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श्रीकृष्ण बहुत ही चतुराई पूर्वक पांडवों, खासकर अर्जुन को, स्वयंवर में प्रकट करना चाहते थे। किंतु...! यह क्या हुआ- काम्पिल्य में श्री कृष्ण, स्वयंवर की पूर्व रात्रि जरासंध के शिविर में जाकर उसको मधुर शब्दों में अतिशय कठोर चेतावनी देने लगे। सम्राट आप भूलकर भी द्रोपदी का अपहरण मत कर लेना। उनके खुफिया तंत्र की निश्चित सूचना थी कि जरासंध अपने पौत्र को ब्याहने की दृष्टि से स्वयंवर के ठीक पहले द्रोपदी को उठा ले जायेगा। जरासंध, पांचाल राज्य से मित्रता करना चाहता था।
कृष्ण ने कहा- सम्राट! मैं आपके हित की बात बताने आया हूं। आपने द्रोपदी के अपहरण का जरा सा भी प्रयास किया तो आपका शव ही मगध लौटेगा। वह भी कैसे ? कृष्ण ने समझाया- मैं आपको बताना चाहता हूँ। आपने 18 बार मुझको कुचलने का प्रयास किया। परन्तु हुआ क्या। हां- मैने ही गोवा युद्ध में आपको सकुशल जीवित जाने दिया। अत: मैने आप पर उपकार ही किया। हां, एक बात और..! मैं जानता हूँ- आप क्या क्या कर सकते हैं !
आप द्रोपदी को स्वयंवर में भाग लेने आते समय मार्ग से उठवायेंगे। किंतु मैं वहीं रहूंगा। और यदि स्वयंवर के मध्य से उठवाओगे तो चक्र सुदर्शन से आपकी गर्दन काट दूंगा। सुनिये, यदि स्वयंवर में झगडा करके मारकाट या विघ्न डाला तो? तब आर्य नियमों के अनुसार आपका वध कर दिया जायेगा। सभी उपस्थित राजा मिल जायेंगे। जरासंध अचम्भित था कि इसको कहां से सब कुछ पता चल गया।
अपना सम्मान बचाने की दृष्टि से जरासंध स्वयंवर में तो गया किंतु अब उसने अपनी रणनीति बदल डाली। अंदर ही अंदर अपने भयंकर अपमान से आहत जरासंध कृत्रिम मुस्कराहट के साथ स्वयंवर में पहुंचा। राजवृंद में बैठा। कृष्ण पर नजर डाली। फिर उठा। समारोह के निदेशक सांदीपनि के सम्मुख जाकर प्रणाम किया। ऋषि ने शतायु होने का आशीर्वाद दिया। फिर सम्राट राजा द्रुपद के सामने पहुंचा। उन्हें नमस्कार किया। और..! सीधा द्रोपदी के सामने यह प्रदर्शित करता सा जा खडा़ हुआ कि वह स्वयंवर में आया तो था परन्तु प्रतिभागी बनने नहीं।
जरासंध ने द्रोपदी को हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। और इतनी तीव्र आवाज में कि लोग सुनलें! बोला- पुत्री, मैं तो तुम्हें अपनी पौत्र बधु बनाने आया था। परन्तु मेरा पोता धनुर्विद्या सीखा ही नहीं। वह तो गदा चलाना ही जानता है। जरासंध ने ऐसा प्रदर्शित किया ताकि राज्यवृंद उसकी महानता का प्रसंशक हो जाए। जरासंध की नाटकीयता काम आई। राज्यवृंद ने साधु साधु कहा। जरासंध ने कृष्ण की ओर देखा और अपने पुत्र सहदेव की ओर देखकर बोला। सहदेव वैसे ही काफी देर हो गयी है। चलो शीध्रता करो। मगध लौटना है।
सबसे पहले तो शिशुपाल उठा था किंतु सफलतापूर्वक धनुष उठाते समय उसका पांव फिसल गया और वह गिर भी पडा़। अनेक राजाओं ने भी भाग्य आजमाया। फिर दुर्योधन और अश्वत्थामा के समीप लगी आसन से महान धनुर्धारी कर्ण उठा। परन्तु उसके धनुष उठाते ही आवाज आई- सूत पुत्र तुम प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते। यह आवाज द्रोपदी की थी।
कृष्ण रात्रि से ही चिंतित थे! अभी तक पांडवगण काम्पिल्य में आये क्यों नहीं। वे बार बार उद्धव की ओर देख रहे थे। जो पांड़वों के संबंध में पल पल की सूचनायें रख रहा था। कृष्ण अचानक तब चौंके जब किसी प्रतिभागी के गिरने पर भीम का अट्टहास उन्हें सुनाई दिया। वह प्रतिभागी और कोई नहीं, वह युवराज दुर्योधन था। इसी बीच एक ब्राह्मण सा दिखने वाला युवक उठा। उसने सहजता से धनुष का संधान किया। प्रतियोगिता जीती। द्रौपदी ने उस ब्राह्मण भेषधारी पांडव कुमार अर्जुन के गले में माला पहनाई। और..! श्रीकृष्ण का एक बृहद उद्देश्य पूरा हो गया है।
आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु।