भोपाल: मप्र विधानसभा का यह सत्र राजनीतिक टकराव, प्रदर्शन, और विकास योजनाओं के मिश्रण के साथ समाप्त हुआ। हालांकि उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ला ने इसे सफल बताया, लेकिन परंपराओं की अनदेखी और तीखे विवादों ने इस सत्र को विवादास्पद बना दिया। सत्र के दौरान विपक्ष और सत्तारूढ़ दल के बीच तीखी बहसें, गरमागर्म चर्चाएं और कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर टकराव देखने को मिला।
संसद और विधानसभाओं को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, जहां जनता के मुद्दों पर चर्चा और समाधान की दिशा तय होती है। ये मंच जनता की आकांक्षाओं को नीति में बदलने का माध्यम हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षों में लोकतंत्र का मंदिर सियासत संग्राम का स्थल बन कर रह गया है। यानि विपक्ष जहां हंगामे और शोर-शराबे को हथियार बना रहा है, वहीं सत्ता पक्ष इसका लाभ उठाकर शासकीय कामकाज बिना चर्चा के निपटाने में जुटा है। यह प्रवृत्ति केवल मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि अन्य राज्यों और संसद तक में गहराती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
मध्य प्रदेश विधानसभा सत्र में बैठकों का ग्राफ गिरता जा रहा है। विधानसभा की कार्यवाही बीते वर्षों में सत्रों की घटती बैठकों का प्रतिबिंब बन गई है। यह स्थिति केवल वर्तमान विधानसभा की नहीं है। बीते 68 वर्षों में मप्र विधानसभा में कुल 4419 बैठकों की योजना बनी, लेकिन इनमें से केवल 2719 बैठकें ही हो सकीं। बीते दो दशकों में यह आंकड़ा और भी नीचे गिर गया है। बैठकों की कमी और इसके दुष्परिणाम विधानसभाओं और संसद में बैठकों की घटती संख्या का सीधा असर विधायिका की भूमिका पर पड़ता है।
16वीं विधानसभा में स्थिति चिंताजनक..
वर्तमान 16वीं विधानसभा को गठित हुए करीब एक वर्ष हो चुका है, और इसका चौथा शीतकालीन सत्र जारी है। लेकिन पहले तीन सत्रों की कार्यवाही पर नजर डालें तो स्थिति चिंताजनक है।
• पहला सत्र (दिसंबर 2023): चार दिनों का यह सत्र नए विधायकों के शपथ ग्रहण तक सीमित रहा। निर्धारित चार दिनों तक कार्यवाही चली।
• दूसरा सत्र (फरवरी 2024): 13 दिनों के लिए बुलाए गए इस सत्र में केवल छह बैठकें हो सकीं। अनुपूरक बजट और कई विधेयक बिना चर्चा के पारित कर दिए गए।
• तीसरा सत्र (जुलाई 2024): 19 दिनों का बजट सत्र केवल पांच बैठकों में ही सिमट गया। इसमें आम बजट सहित 11 विधेयक और छह अशासकीय संकल्प बिना किसी गहन चर्चा के पारित कर दिए गए।
कम बैठकें होने का असर..
* बैठकें कम होने का मतलब है कि जनप्रतिनिधि कानूनों और जनहित के मुद्दों पर पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे।
* कानूनों की गुणवत्ता पर असर: बिना चर्चा और बहस के कानून पारित होने से उनकी वैधानिकता और प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं। यह स्थिति अदालतों में विवादों को जन्म देती है।
* लोकतांत्रिक प्रक्रिया का कमजोर होना: सदस्यों द्वारा गहन चर्चा न होने से विधायिका की गरिमा और प्रासंगिकता पर असर पड़ता है।
* विपक्ष की भूमिका: विपक्ष सत्र के दौरान हंगामे और वॉकआउट के जरिए अपनी सियासत को चमकाने का प्रयास करता है। यह जनता के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय सियासी संदेश देने का मंच बनता जा रहा है।
* सत्ता पक्ष का रवैया: सत्ता पक्ष भी इस स्थिति का लाभ उठाकर जनहित के मुद्दों पर चर्चा से बचने की कोशिश करता है। शोर-शराबे के बीच शासकीय कामकाज तेजी से निपटा लिया जाता है।
जन समस्या का समाधान कैसे हो सकता है?
लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी विधायिका कितनी प्रभावी और सक्रिय है। विधानसभाओं और संसद में घटती बैठकों की संख्या लोकतंत्र की प्रक्रिया को कमजोर करती है। यह केवल कानून निर्माण की गुणवत्ता पर असर नहीं डालती, बल्कि जनता की समस्याओं को सुलझाने में भी बाधा बनती है। विधायिका को सियासत का मंच बनाने के बजाय जनहित के मुद्दों पर चर्चा और समाधान का स्थान बनाना होगा।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह एक अनिवार्य कदम है।
* यह जरूरी है कि सत्रों की न्यूनतम बैठकों की संख्या तय हो, और इनकी अनुपालना के लिए जवाबदेही सुनिश्चित की जाए।
* हंगामे पर सख्त नियम: हंगामे और बाधाओं को रोकने के लिए सख्त नियम बनाए जाएं ताकि सदन की कार्यवाही बाधित न हो।
* सत्ता और विपक्ष की जवाबदेही: सत्र के दौरान बैठकों की कमी के लिए दोनों पक्षों की जिम्मेदारी तय हो।
* चर्चा के लिए समय सुनिश्चित करना: विधेयकों और जनहित के मुद्दों पर चर्चा के लिए समय निर्धारित किया जाए।