आज हम स्वतंत्र हैं। परन्तु हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजनैतिक लड़ाई नहीं थी, हम जिस दर्शन, दृष्टि और विचार के लिये विश्व में जगद्गुरू के स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उस दर्शन, दृष्टि और विचार को फिर से स्थापित करने की लड़ाई अभी शेष है किसी भू-भाग के किसी अंश पर जब जीवित सृष्टि का निर्माण होता है तो उसे देश की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। इसी के साथ देश के लोग जिन जीवन मूल्यों एवं सिद्धान्तों का विकास करते हैं, उसके आधार पर उनके जो श्रृद्धा, आस्था व विश्वाास के केन्द्र बनते हैं, वह भी देश होने का एक अनिवार्य तत्व हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। हमारे ऋषि, मुनियों ने साधना एवं तपस्या के आधार पर सृष्टि के गूढ़तम रहस्यों का साक्षात्कार किया, जिसे केवल भारत के लिये नहीं, संपूर्ण सृष्टि के लिए दिया, यही दृष्टिकोण भारत को जगदृगुरु बनाता है। वैश्विक दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर भारत न केवल ज्ञान और विज्ञान, न केवल समृद्धि और विकास, अपितु पराक्रम की दृष्टि से भी विश्व में अग्रणी रहा है। विश्व का कोई ऐसा फलक या क्षेत्र नहीं है, जिस पर समय के किसी न किसी कालखंड में भारत का कोई न कोई व्यक्ति शीर्ष या शीर्ष के आसपास न रहा हो। विश्व में जिस सृष्टि का निर्माण हुआ वह केवल हमारे अथवा हमारे विज्ञान की दृष्टि से नहीं बल्कि हमारे पराक्रमी सम्राटों के पराक्रम का ही नतीजा रहा कि वह हिन्दुकुश पर्वत की सीमाओं के पार दूर-दूर तक विकसित हुई, पहुंची। परन्तु उन पराक्रमी महापुरुषों ने अपने अहंकार को दूसरों पर आरोपित करने के लिये विजय अभियान नहीं चलाये। बल्कि सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिये उन्होंने अपने पराक्रम और शक्ति का प्रयोग किया। उनका ज्ञान भी विवाद के लिये नहीं था। बहस के लिये नहीं था। उनकी शक्ति दूसरों के उत्पीड़न के लिये नहीं थी। उनका जो समृद्धि और विकास था, वह भी अहंकार का साधन नहीं था, बल्कि विद्या और ज्ञान के लिये था। धन दूसरों की सहायता के लिये था। शक्ति अन्याय से पीड़ित लोगों की रक्षा के लिये थी। अपने इसी दर्शन-दृष्टि और विचार के आधार पर भारत विश्व गुरू रहा। परन्तु परमात्मा की इस सृष्टि में कुछ भी स्थाई और विशुद्ध नहीं है। समय के साथ-साथ विसंगतियां और विकृतियां आती हैं। हमारे जीवन में भी विसंगतियां और विकृतियां आयीं। अपनी विसंगतियों और विकृतियों के कारण 700-800 वर्षों तक न केवल राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहे बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में हम दूर-दूर तक पिछड़ते चले गये। हमारे महापुरूषों ने इस देश को स्वतंत्र कराने के लिये एक लम्बा संघर्ष किया। इन 700-800 वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं रहा, जब भारत माता का कोई न कोई पुत्र कहीं न कहीं बलिदान न हुआ हो। यह भी सही है कि इतने लम्बे समय तक कोई देश पराधीन नहीं रहा परन्तु यह भी सही है कि इतने लम्बे समय तक पराधीन रहने के बाद फिर कोई स्वतंत्र नहीं हुआ। आज हम स्वतंत्र हैं। परन्तु हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजनैतिक लड़ाई नहीं थी, हम जिस दर्शन, दृष्टि और विचार के लिये विश्व में जगद्गुरू के स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उस दर्शन, दृष्टि और विचार को फिर से स्थापित करने की लड़ाई थी, जो अभी शेष है। व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के जीवन में स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता मायने रखती है। परन्तु इससे भी ज्यादा मायने यह बात रखती है कि कोई व्यक्ति, कोई समाज, कोई राष्ट्र लम्बे समय तक अपनी स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता को कैसे सुरक्षित रखता है। यह वही व्यक्ति, वही समाज और वही राष्ट्र कर सकता है, जो शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से स्वतंत्र, संप्रभु और स्वायत्त है। इसलिये हमारे यहां शिक्षा और ज्ञान की स्वतत्रंता, संप्रभुता और स्वायत्तता बनाये रखने पर विशेष ज़ोर रहा है। शिक्षा की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और संप्रभुता से आशय उस शिक्षा के ज्ञान और व्यवस्था से है जो न केवल मनुष्य के मस्तिष्क बल्कि उनके हृदय का भी परिमार्जन करती है। यह वही शिक्षा कर सकती है, जो हमारे राष्ट्रीय जीवन मूल्यों के मूल में प्रतिष्ठित हो। इसलिए यह आवश्यक हो उठा कि हम भारत के इस दर्शन, दृष्टि और विचार को समझें, जिसके आधार पर हमारा शिक्षा का विचार, हमारा ज्ञान का विचार, हमारा पुरूषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विचार हमारे जीवन का आधार था । इसी के कारण न केवल हम अपनी बल्कि सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध रहे। सफल भी रहे। आज की समस्याओं, वातावरण को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। पर इस हक़ीक़त से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि हर समाज के सामने हर समय अपने—अपने तरह की समस्याएं और चुनौतियां आई हैं। रही हैं। लेकिन अगर हमने इन समस्याओं और चुनौतियों से निपटने के लिए अपने दर्शन, दृष्टि, विचार अर्थात जीवन मूल्यों के अनुकूल हल निकाला तो वह समाधान स्थायी होगा। मंगलकारी होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिये नई समस्यायें पैदा नहीं करेगा। मैनें इस दृष्टि से विचार किया तो यह तथ्य और सत्य हाथ लगा कि हमारे ऋषियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना और तपस्या के आधार पर सृष्टि का निर्माण परमात्मा के निर्गुण, निराकार बह्म के स्वरूप में ‘‘एको हम् बहुस्याम् ’’ (मैं अकेला हूं अनेकों रूपों में प्रकट हूं) के विचार से किया। इसी विचार से सृष्टि को जन्म दिया। इसीलिये भारतीय दर्शन, विचार और दृष्टि यह मानती है कि यह संपूर्ण सृष्टि परमात्मा का ही स्वरूप है। चूंकि यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा का ही स्वरूप है, इसीलिए हमारे भारतीय दर्शन ने प्रतिपादित किया-‘‘वसुधैव कुटुबंकम्’’ यानी यह सम्पूर्ण वसुधा हमारा परिवार है। जब सम्पूर्ण वसुधा हमारा परिवार है। जब पूरा विश्व हमारा परिवार है तो हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम सबको प्रसन्न रखें। तभी तो कहा गया है- ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः।’’ दूसरे दर्शन बहुत उदार हुए तो उन्होंने कहा- जियो और जीने दो। भारत के दर्शन और दृष्टि में, उसकी सीमाओं में केवल मनुष्य नहीं है। केवल प्राणी नहीं है। उसके विचार का केंद्र विंदु समस्त सृष्टि है। इसलिये हमने एक प्रकृति सुसंगत जीवनशैली का प्रतिपादन किया है। हमारे यहां विचार हुआ- माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः । बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर हमारे ऋषियों ने यह प्रतिपादित किया कि यह सम्पूर्ण धरती ही नहीं, आकाश और पाताल भी हमारे स्वदेश का ही स्वरूप हैं। जो सकारात्मक सोच में लगे हैं, जो मंगल कामना करते हैं, वे सभी लोग आपस में बन्धु और बान्धव हैं। हमारी प्रार्थना है सम्पूर्ण विश्व की रक्षा हो। हमने कभी यह नहीं कहा कि जो हम कर रहे हैं वही अन्तिम सत्य है, जो हम कह रहे हैं वह भी सत्य हो सकता है, जो दूसरा कह रहा है वह भी सत्य हो सकता है और हो सकता है जो तीसरा व्यक्ति कर रहा है, वह हम दोनों से अधिक सही हो। इसलिये हमारे ऋषियों ने कहा-आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः। समाज में अनेक प्रकार के चिन्तन, साथ-साथ चलने के कारण, मतभेद स्वभाविक हैं, परन्तु मतभेदों के साथ-साथ एक ही तरीका है। परस्पर विचार-विमर्श। यह संवाद की भूमि है। शास्त्रार्थ की भूमि है। जहां हारने वाला, जीतने वाले को अपना शत्रु नहीं मानता था। वह कहता था कि मुझे सत्य का ज्ञान नहीं था, आज आपने मुझे सत्य का ज्ञान कराया और इसलिये मैं, आज से आपका अनुयायी हुआ। आज समाज में जिस तरह का संकट हैं, व्यक्तियों के बीच टकराव है, समूहों के बीच टकराव है, राष्ट्रों के बीच टकराव है। मनुष्य और प्रकृति के बीच टकराव है। अगर इन सारे टकरावों और इनकी पृष्ठभूमि पर विचार करें तो मुझे लगता है कि एकमात्र विकल्प भारत का दर्शन, दृष्टि और विचार है। किसी राष्ट्र का निर्माण अचानक नहीं होता, उसे सामर्थ्यवान, संस्कारवान, चरित्रवान और देशभक्त लोग करते हैं। ऐसे लोगों के निर्माण की व्यवस्था और प्रक्रिया का नाम शिक्षा है। इसलिये इस शिक्षा में कहीं न कहीं हमारे भारत के दर्शन, दृष्टि और विचार को शामिल किया जाना आवश्यक है। हम जिस देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, वह केवल किसी भाग की आजादी की लड़ाई नहीं थी, 700-800 वर्षों के कालखण्ड में हमारा दर्शन, दृष्टि और विचार मन्द पड़ा था। यद्यपि हमारे पूर्वजों ने उस दर्शन, दृष्टि और विचार की रक्षा के लिए सत्ता संघर्ष किये, तभी तो वह दर्शन, दृष्टि और विचार बीज रूप में इस देश में उस समय भी सुरक्षित रहा जब अनेक प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियां खड़ी थीं। ऐसे में हम सब लोगों का यह कर्तव्य बनता है कि हम उस दर्शन, दृष्टि, विचार को समझें। आने वाली पीढ़ियों को समझानें की चेष्टा करें कि यह सम्पूर्ण सृष्टि हमारा परिवार है। परिवार में कोई एक व्यक्ति दुखी होता है तो शेष व्यक्ति अपने आप दुखी हो जाते हैं। कहीं भी अगर कोई पीड़ित व्यक्ति दिखायी पड़ता है तो हजारों हांथ उठते हैं, उस पीड़ित और असहाय व्यक्ति की मदद के लिये। सरकार अपना काम करती है। परन्तु समाज इस वसुधाको अपना परिवार मानने के विचार में रहा है। इसलिये किसी के साथ अन्याय, अत्याचार और शोषण करने का विचार हमारे सिद्धान्तों और विचार के विरूद्ध है। अगर ऐसा विचार आता है तो पीड़ित की सहायता के लिये अपने ज्ञान, धन, शक्ति, पुरूषार्थ का उपयोग करते हैं। हमारे यहां पुरूषार्थ चतुष्टय में धर्म में भी अर्थ, काम, मोक्ष में समाहित है, अर्थ में भी धर्म, काम एवं मोक्ष शामिल है, इसी तरह काम में भी धर्म, अर्थ, मोक्ष शामिल है, और मोक्ष भी धर्म, अर्थ काम ग्रहित है। ऐसा मोक्ष कालजयी नहीं हो सकता, जिसमें पुरुषार्थ चतुष्टय न हो। यदि आने वाली पीढ़ियां इससे जुड़ती हैं तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान वे स्वतः कर लेंगी, उनको किसी बड़े कानून की, बड़े विधान की या सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता कम से कम पड़ेगी। यही नहीं, जो इस दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर खड़े हैं, वे न केवल अपना निर्माण करेंगे बल्कि अपने से जुड़े हुये प्राणियों और सृष्टि के शेष हिस्सों का भी संरक्षण और संवर्धन करेंगे। तब यह सम्पूर्ण प्रकृति, मनुष्य जाति का संवर्धन और संरक्षण भी सुनिश्चित करेगी। कहा जा सकेगा-धर्मो रक्षति रक्षितः। गिरीश चंद्र त्रिपाठी