स्टोरी हाइलाइट्स
टेलीविजन पर आने वाले "कौन बनेगा करोड़पति'' कार्यक्रम में प्रसिद्द अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की अभिनेत्री सोनाक्षी द्वारा रामायण के साधारण प्रश्न का उत्तर न दे सकने पर बहुत हायतोबा मच रही है. आमतौर पर इस कार्यक्रम में पूछे जाने वाले अन्य विषयों से सम्बंधित प्रश्नों का उत्तर लोग सहजता से या थोड़ी माथापच्ची करके दे देते हैं, लेकिन धर्म, परम्पराओं, आध्यात्म, शास्त्रों तथा पौराणिक व्यक्तित्वों से संबंधित प्रश्नों के जबाव अधिकतर लोग नहीं दे पाते। काफी पढ़े-लिखे लोग भी इसमें मात खा जाते हैं।
टेलीविजन पर आने वाले "कौन बनेगा करोड़पति' कार्यक्रम में प्रसिद्द अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की अभिनेत्री सोनाक्षी द्वारा रामायण के साधारण प्रश्न का उत्तर न दे सकने पर बहुत हायतोबा मच गयी . आमतौर पर इस कार्यक्रम में पूछे जाने वाले अन्य विषयों से सम्बंधित प्रश्नों का उत्तर लोग सहजता से या थोड़ी माथापच्ची करके दे देते हैं, लेकिन धर्म, परम्पराओं, आध्यात्म, शास्त्रों तथा पौराणिक व्यक्तित्वों से संबंधित प्रश्नों के जबाव अधिकतर लोग नहीं दे पाते। काफी पढ़े-लिखे लोग भी इसमें मात खा जाते हैं।
कौन बनेगा करोडपति के पिछले संस्करण में एक अत्यधिक शिक्षित महिला को यह नहीं मालूम था कि सत्यभामा श्रीकृष्ण की पत्नी थीं। कर्ण के सारथी शल्य थे और राम का अवतार त्रेतायुग में हुआ, यह इन लोगों को पता नहीं था। एक युवक श्रीकृष्ण को पांडवों का सेनापति बता रहा था। मेरे एक अतिशिक्षित मित्र पूछ रहे थे कि क्या दधीचि नाम के कोई ऋषि हुये हैं?
ये बातें सिद्ध करती हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और हमारी सोच में कुछ खामी है। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त बातों का पता न होने से कोई अज्ञानी हो जाता है, लेकिन यह तो सिद्ध होता ही है कि हम शिक्षित भले ही हो रहे हों, लेकिन अपनी संस्कृति, इतिहास और पूर्वजों की विरासत से लगातार कटते जा रहे हैं। जो देश या समाज अपने इतिहास, संस्कृति और सभ्यता से कट जाता है, उसका विनाश अस्तित्व खतरे में आने में देर नहीं लगती।
इस धरती पर करीब ढाई सौ सभ्यताएं विलीन हो गयीं। भारत की सभ्यता और संस्कृति इसलिए बची रही कि यहां इन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपने की बहुत मजबूत व्यवस्था रही। पारिवारिक और सामाजिक परिवेश ऐसा रहा कि सांस्कृतिक मूल्य हम बालपन से ही सहजरूप से आत्मसात करते रहे। लेकिन अब परिवार और समाज में वह परिवेश लुप्त होता जा रहा है।
कला और वाणिज्य पढ़ने वाले विद्यार्थियों को तो पाठयक्रम में अपनी संस्कृति, इतिहास और महापुरुषों के बारे में कुछ पढ़ने को मिल भी जाता है, लेकिन टेक्नालॉजी के विद्यार्थियों को तो इसका कोई अवसर ही नहीं मिलता। इसकी चिन्ता करने वाले कुछ विद्वानों की राय है कि तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में संस्कृति और जीवन-मूल्यों से संबंधित पाठ्य सामग्री का समावेश किया जाए। विचार अच्छा है, लेकिन यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जीवन-मूल्य और संस्कृति किताबों में पढ़ने से नहीं बल्कि परिवेश से आत्मसात होते हैं.
भोपाल में कुछ वर्ष पहले एक संगोष्ठी में एक विद्वान ने अपना बहुत अच्छा अनुभव सुनाया। उन्होंने कुछ उच्च शिक्षित युवाओं से पूछा कि भारत में ऐसा क्या हो रहा है, जिस पर आप गर्व कर सकते हैं? किसी ने कहा कि भारतीय उद्यमी ब्रिटेन और अमेरिका की कम्पनियों को टेकओवर कर रहे हैं, उन्हें इस पर गर्व है; किसी ने कहा कि हमारे देश में लगातार तकनीकी शिक्षा का विस्तार हो रहा है, हमारे यहाँ बड़ी संख्या में इंजीनियर और डॉक्टर बन रहे हैं, ग्रोथ रेट बढ़ रहा है, समृद्धि आ रही है, आदि. उन्होंने ऐसी बातों पर स्वयं को गौरवान्वित होना बताया।
उक्त विद्वान को निराशा हुयी, क्योंकि किसी भी युवा ने यह नहीं कहा कि उसे इस बात पर गर्व है कि इस देश ने वेद, उपनिषद और गीता जैसे ग्रंथ दिये, जीवन को परिपूर्णता में जीने के लिए योग और प्राणायाम जैसी वैज्ञानिक विधियाँ विकसित कीं, "वसुधैव कुटुम्बकम' का विचार दिया. सभी धर्मों के प्रति सम्मान का विचार दिया. यह कहा कि एक ही सत्य को विद्वान बहुत रूप से व्यक्त करते हैं. किसी ने भी यह नहीं कहा कि उन्हें भारत के ऋषियों तथा उनके द्वारा दी गयी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर गर्व है।
अपने कॉलेज के दिनों में मैंने अपने शिक्षा गुरु प्रोफेसर अक्षय कुमार जैन से सभ्यता और संस्कृति में अंतर समझाने का अनुरोध किया। सूत्रों में बात को समझाने वाले प्रोफेसर जैन ने कहा कि घर में बिजली की भरपूर रोशनी है, जिससे पूरा घर जगमगा रहा है, इसे सभ्यता कहेंगे और बिजली की रोशनी ने नहाये घर में हम पूजा-स्थल पर दीपक जलाते हैं, इसे संस्कृति कहेंगे। मोटे रूप मेंइसका अर्थ यह हुआ कि भौतिक सम्पन्नता सभ्यता है और आंतरिक संस्कार संस्कृति।
समाज में न जाने कैसी विकृत सोच पनपने लगी है कि संस्कृति, परम्परा और धर्म की बात करते ही लोग या तो आपको दकियानूसी समझने लगते हैं या फिर आपका नाम किसी संगठन से जोड़ देते हैं। लेकिन यह विकृत सोच है। संस्कृति, परम्परा और धर्म ही ऐसे तत्व हैं, जिनके कारण भारत सही अर्थों में आज भी भारत बना हुआ है। यहाँ की संस्कृति को समाप्त करने की अनेक कोशिशों के बावजूद अभी तक यह बहुत जीवंत है, तो इसका श्रेय हमारे पूर्वजों द्वारा संस्कारों तथा जीवन-मूल्यों को एक-पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचारित करने के लिए स्थापित व्यवस्था को जाता है।
परिवार में बुजुर्ग धर्मग्रंथों का पाठ करते थे। माताएं-दादियां, दादाजी पौराणिक और शिक्षाप्रद कथाएं सुनाते थे। इसके चलते बच्चों में कब अच्छे संस्कारों का बीजारोपण हो जाता था, पता ही नहीं चलता था। सोचाता हूँ जब नई पीढ़ी के लोग पिता, दादा, दादी, नानी बनेंगे तो नई पीढ़ी को देने के लिए उनके पास मकान, जायदाद, गाड़ी, बैंक बेलेन्स के सिवा देने के लिए संस्कृति के नाम पर क्या होगा? शायद कुछ नहीं।
विलाप करने से कुछ नहीं होगा। हमें अपने सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में उन तत्वों की पुन: स्थापना करनी होगी, जिसमें व्यक्ति जन्म लेते ही इन्हें सहज रूप से आत्मसात करता जाता है। हमें अपने घरों में धर्म, संस्कृति और परम्पराओं से संबंधित पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं को रखना चाहिए, ताकि बच्चे उनकी ओर आकर्षित हो सकें। हमें स्वयं तमाम व्यस्तताओं से समय निकालकर इनका अनुशीलन और वाचन करना होगा, तभी इस दिशा में कुछ सार्थक हो पाएगा, वरना भारतीयता खोकर हम कुछ भी प्राप्त कर लें, कोरे के कोरे ही रहेंगे।
दिनेश मालवीय