चलते फिरते भूल भटक कर....दिनेश मालवीय “अश्क “ चलते फिरते भूल भटक कर कभी इधर आ जाया कर । दुश्मन हूँ तो आँख मींचकर हँसकर गले लगाया कर । वक्त जरूरत मिलने जुलने की भी कुछ गुंजाइश रख - देख दुश्मनी को भी इतना सिर पर नहीं चढ़ाया कर । भरी भीड़ में गाली देकर जली कटी माना बोला - जब भी मिले अकेला सॉरी कहकर हाथ मिलाया कर । गुस्से की यदि आग धधकती बदले पर आमादा हो - ठंडे जल की बौछारों से सिर पर हाथ फिराया कर । जेबकटी ने बाजारों में रंग ढंग बस बदले हैं - दूकानों की चमक दमक के झांसे में मत आया कर । रिश्तों के जज़्बात खुश्बुयें हैं जीवन के फूलों की - शायर है रूखे लोगों को ये अहसास कराया कर । ग़ज़ल तेरी राधा सी बन ओठों पर थिरका करती हैं - कॄष्ण प्रेम के वॄंदावन में हंसकर रास रचाया कर ।