सुरति , निरति एवं ध्यान क्या है?
स्टोरी हाइलाइट्स
दुनिया के हम जितने भी कार्य करते हैं, उनमें सुरति चाहिए। बोलना हो, चलना हो, देखना हो, सुनना हो या फिर और कोई कार्य करना हो, सुरति की नितांत आवश्यकता होती है
सुरति, निरति एवं ध्यान
दुनिया के हम जितने भी कार्य करते हैं, उनमें सुरति चाहिए। बोलना हो, चलना हो, देखना हो, सुनना हो या फिर और कोई कार्य करना हो, सुरति की नितांत आवश्यकता होती है। सुरति ध्यान को कहते हैं तथा ध्यान का संबंध मन से होता है। सुरति का संबंध आत्मा से भी होता है। सुरति में देखने तथा सुनने की ताकत भी होती है। यह सारा खेल सुरति का है।
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"सुरति रच्यो संसारा।
सुरति का खेल है सारा।।"
इसी सुरति(रचना करने वाले का मन) में अनेक ब्रह्माण्ड हैं। सुरति के दो अंग हैं- सूरति तथा निरति। सुरति का एक हिस्सा शरीर के मन से तथा दूसरा हिस्सा चेतन रूपी आत्मा से जुड़ा हुआ होता है। यह चेतन रूपी आत्मा संसार की रचना करने वाले अक्षर ब्रह्म के मन का अंश है।
यह प्रत्येक मानव के स्थूल शरीर से जुड़ी होती है तथा यह दृष्टा के रूप में होती है। यह आत्मा मानव के चेतना के स्तर को ऊपर उठाती है तथा उसे तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सतोगुण की तरफ ले जाती है। जब ध्यान में, सुरति के दोनों अंग शरीर का मन तथा आत्मा(सुरती तथा निरति) मिल जाते हैं, तब हजारों किलोमीटर दूर स्थित वस्तु को भी देखा, सुना, तथा अनुभव किया जा सकता है।
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यह चेतन रूपी आत्मा के विकास की अवस्था पर निर्भर करता है। इस प्रकार सुरति और निरति दोनों का एक हो जाना बहुत ही महत्व रखता है। यह चेतन रूपी आत्मा तो निराकार है। यह न कटती है, न जलती है, न गलती है। यह बिना पैर के चलती है, बिना कान के सुनती है, बिना हाथ के कर्म करती है, बिना मुंह के बोल सकती है तथा बिना आंख के देख सकती है।
"पद बिनु चले, सुने बिनु काना। कर बिनु कर्म करें विधि नाना।।"
इस प्रकार संतों ने शरीर योग से परे सूरति योग की बात कही है। "सुरति से देख, सखी वो देश।।"
"जैसे कामिनी जाए कूप पर, कर छोड़े बतलाए। आपन रंग रचे सखियन संग, सूरत घड़े पर लाय।।"
हम सुरति वहीं रखते हैं जहां हमें प्रेम होता है, इसलिए सुरति लगाने का तात्पर्य प्रेम करना है। यदि हमारी अपनी सूरति संसार में रमी हुई है तो हम संसार की वस्तुओं से प्रेम कर रहे होते हैं।
मृग का बांसुरी की धुन में सुरति लगाना, पतंगा का दीपक की लौ में सुरति लगाना, चकोर का चांद में सुरति लगाना, मछली का जल में सुरति लगाना आदि प्रेम का उदाहरण है।
अतः जिसने अपने ध्यान के द्वारा सुरति तथा निरति को एक कर लिया है, वही भव सागर से पार जा सकता है। इस ध्यान के लिए मानव को सतगुरु की शरण में जाना चाहिए तथा इस हेतु अपनी सुरति को सतगुरू के चरणों में ले जाने की जरूरत है।
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बजरंग लाल शर्मा