क्यूँ उपेक्षित है बुजुर्ग:- अपनों से ही आहत
स्टोरी हाइलाइट्स
समकालिन दौर स्पर्धा का दौर हैं। इसमें लोग आगे बढ़ने के लिए अपनों की भावनाओं तक को दांव पर लगा देते हैं। माता - पिता अकेले होते जा रहे हैं और न
विघटित होते परिवारों में अपने ही प्रियजनों के बीच उपेक्षित बुजुर्गों के अकेलेपन का उद्घाटन।
समकालिन दौर स्पर्धा का दौर हैं। इसमें लोग आगे बढ़ने के लिए अपनों की भावनाओं तक को दांव पर लगा देते हैं। माता - पिता अकेले होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी भावनाओं के मामले में पीछे रह गई हैं। शहरों में तो वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम हैं जो पैसे वाले लोगों को सभी सुविधाएं प्रदान करते हैं लेकिन गाँवों में निर्धनता और बेरोजगारी का बोलबोला हैं। वहाँ के वृद्ध माता - पिता घुट - घुट कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जो माँ - बाप चार बेटों का पेट भर सकते थे , आज वही चार बेटे मिलकर भी एक वृद्ध माता - पिता को दो वक्त की रोटी नहीं दे सकते। सारा जीवन सम्मानपूर्वक व्यतीत करने वाले वृद्धों को घृणित जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता हैं। आज की युवां पीढ़ी इस उपभोक्तावादी युग में अपने कर्तव्यों को ही भूलती जा रही हैं।
समाज में उपस्थित सभी सामाजिक संस्थाओं ने सबसे अधिक महत्वपूर्ण संस्था परिवार हैं। जीवन का आनंद और जीवन में रूचि का कारण एक सीमा तक परिवार ही हैं , जहाँ मनुष्य अपनत्व पाता हैं , ममत्व पाता हैं। परिवार को खोकर मनुष्य स्वंय को खो देता हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है , समाज में रहना उसकी प्रकृति है। जिस प्रकार पक्षियों की प्रकृति है कि वे उड़े , मछलियों की प्रकृति हैं कि वे जल में तैरें , वैसे ही मनुष्य की यह प्रकृति है कि वह घर में रहे। घर की नींव पति - पत्नी के दाम्पत्य संबंधों पर निर्भर करती हैं। दोनों के संबंधों से परिवार का निर्माण होता हैं। कंचनलता सब्बरवाल के अभिमत से - ‘‘ साधारण वासना से लेकर जात्याभिमान तक की भावनाओं का परिवार की स्थापना एंव निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान हैं। ”
आज आर्थिक विषमताओं के कारण जीवन में परिवर्तन आने से संयुक्त परिवार की नींव हिल गई हैं। परिवारों के विघटन की स्थिति में पारिवारिक मूल्यों को मान्यता नहीं दी जाती। पारिवारिक प्रतिमानों अवहेलना की जाती है , संबंधों में सोहार्दृ के स्थान पर कलह - संघर्ष का वातावरण उपस्थित हो जाता है। आधुनिक जीवन में पिता - पुत्र के संबंध - सूत्र एकदम ढ़ीले पड़ गए हैं। उनके संबंधों में औपचारिकता तथा कृत्रिमता का समावेश हो गया है। माँ की स्थिति परिवार में अत्यंत दर्दंनाक हो गई है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है जब माँ भी अनावश्यक सामग्री समझी जाने लगे। ‘‘ आधुनिक जीवन के जटिल परिवेश में न केवल समाज का विघटन हो रहा है , वरन् उससे भी अधिक परिवार का विघटन लेखक की गम्भीर आंतरिक समस्या बनी हुई है। ‘‘2
इस उपभोक्तावादी दौर में वृद्धों को मृत्यु का इतना भय नहीं रहता जितना अकेलेपन का डर उन्हें सता रहा है। स्वतंत्रता से पहले वृद्ध स्त्री - पुरूष घर के मुखिया होते थे , चाहें वे कमायें या न कमायें। परिवार का कोई भी सदस्य उनकी मर्जी के बिना कुछ नही कर सकता था। इस समय पैसा गौण था। घर का संगठन व बुजुर्गों का सम्मान बड़ा माना जाता था। लेकिन समकालीन युग स्वार्थ , धनलोलुप्ता , अहंकार , अनुदारता , अनैतिकता एवं अधर्म का है। माता - पिता व अन्य संबंधियों के साथ जो भावनात्मक रिश्ते थे वे भी समाप्त हो गए हैं। केवल मैं और मेरा परिवार रह गया हैं। अपने पैसों को दूसरों पर क्यूँ खर्च करूं बल्कि जितना उन से लिया जा सकता है उतना छीन लूं। वृद्धों का अकेलापन इसी मानसिकता का परिणाम है।
आज के युग में जहाँ युवा अपने जीवन