योग चिकित्सा– आंत्रशोथ एवं अल्सरेटिव कोलाइटिस का योगोपचार, गैस्ट्रोएन्टेराइटिस क्या है ? मुझे गैस्ट्रोएन्टेराइटिस कैसे हो सकता है ? मैं गैस्ट्रोएन्टेराइटिस कैसे रोक सकता हूँ ? इलाज क्या है ?


स्टोरी हाइलाइट्स

योग चिकित्सा–आंत्रशोथ एवं अल्सरेटिव कोलाइटिस का योगोपचार :गैस्ट्रोएन्टेराइटिस क्या है?मुझे गैस्ट्रोएन्टेराइटिस कैसे हो सकता है? मैं योग

योग चिकित्सा– आंत्रशोथ एवं अल्सरेटिव कोलाइटिस का योगोपचार 
गैस्ट्रोएन्टेराइटिस क्या है?

मुझे गैस्ट्रोएन्टेराइटिस कैसे हो सकता है?

मैं गैस्ट्रोएन्टेराइटिस कैसे रोक सकता हूँ?

गैस्ट्रोएन्टेराइटिस का इलाज क्या है?

पाचन तंत्र के रोगों में कोलाइटिस (वृहदांत्र शोथ) तथा तीव्र गैस्ट्रो एंटराइटिस आते हैं। कोलाइटिस एक ऐसा शब्द है, जो बड़ी आँत में होने वाली अनेक बीमारियों को दरसाता है। इसे आँवयुक्त दस्त भी कहते हैं। जो एंटामीबा नामक एक परजीवी कीटाणु के संक्रमण से होता है। इसे क्रॉनिक अमीबियासिस भी कहते हैं।

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कई देशों में इस रोग की गंभीर अवस्था को मनोकायिक बीमारी, अल्सरेटिव कोलाइटिस के रूप में जाना जाता है। इस रोग में बड़ी आंत में लाखों छोटे घाव बनकर सूजन उत्पन्न करते हैं तथा म्यूकस का स्राव बढ़ा देते हैं।

कोलाइटिस दो वजह से होता है- एक विशिष्ट कारणों से तथा दूसरा अज्ञात कारणों से। विशिष्ट अथवा ज्ञात कारणों से होने वाले रोग हैं- अमीबियासिस तथा ट्यूबरक्यूलोसिस (क्षय रोग)। अज्ञात कारणों से अर्थात इन रोगों का कारण अभी तक नहीं जाना जा सका है कि वे क्यों होते हैं। इस प्रकार के रोग हैं- अल्सरेटिव कोलाइटिस तथा इरिटेबल कोलोन इन दोनों रोगों में साइकोसोमेटिक (मनोदैहिक) कारणों की भूमिका प्रमुख होती है।

रोग के लक्षण:-



कोलाइटिस के मुख्य लक्षण हैं- आँव के साथ जलयुक्त दस्त आना। दस्त दिन में कई बार लगते हैं तथा उसमें बहुत दुर्गंध आती है। इससे पेट में दर्द होता है, जो छूने या दबाने से बढ़ता है। पुराने एवं गंभीर रोगियों में रक्तमिश्रित पीव आता है। 

प्रायः रोग की यह परेशानी कम-ज्यादा होती रहती है। कुछ वर्षों तक यह रोग थम जाता है, लगता है कि रोग समाप्त हो गया, परंतु फिर यह अपना रूप दिखाने लगता है। यह सिलसिला चलता रहता है। रोग से रोगी कमजोर एवं दुर्बल हो जाता है तथा उसे एनीमिया (रक्ताल्पता) हो जाता है। 

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रोग के कारण:-

इस रोग का प्रमुख कारण है- तनाव और दबाव। वातावरण के दबाव तथा प्राकृतिक विपदाओं द्वारा निर्मित तनावजन्य परिस्थितियाँ इस रोग को उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यही वजह है कि इस रोग के उपचार में मनोदैहिक कारणों को ध्यान में रखा जाता है। इस संदर्भ में चिंतित, परेशान एवं उद्विग्न मानसिकता वाले महाविद्यालय के छात्रों में होने वाले 'स्टुडेंट डायरिया' को देखा जा सकता है। 

यह रोग एक मंद प्रकृति का एवं अल्पकालीन होता है और परीक्षा के कुछ सप्ताह पूर्व से ही प्रारंभ हो जाता है। इसमें बारंबार दस्त होते हैं, जिसके कारण पढ़ाई में न केवल व्यवधान ही आता है, बल्कि उन्हें इस कालावधि से बाहर निकलने तक ट्रंकुलाइजर्स का सहारा भी लेना पड़ता है। 

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औषधीय चिकित्सा:-

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस रोग के ठीक-ठीक कारणों का पता लगा पाने में असफल रहा है। इस रोग का पूर्णतः निदान ढूँढ़ पाना संभव नहीं हो पाया है। चिकित्सक इस रोग को नियंत्रण में तो ले आते हैं, परंतु इसका स्थायी उपचार करने में असहाय साबित हो रहे हैं। 

क्रॉनिक कोलाइटिस के दस्त बंद करने हेतु एंटीबायोटिक औषधियाँ दी जाती हैं। आँतों की आंतरिक तंत्रिकाजन्य क्रियाशीलता को कम करने वाली औषधियों का भी प्रयोग किया जाता है। कई औषधियाँ प्रभावकारी साबित होती हैं, परंतु ये सभी लक्षणों को दबाती हैं तथा मूल कारण यथावत् बना रहता है।

कार्टिकोस्टीरायड को अच्छी दवा माना जाता है। इस दवा से अल्सरेटिव कोलाइटिस में कुछ लाभ अवश्य मिलता है, परंतु इसके साइड इफेक्ट कहीं अधिक हैं, जो कि रोग से कहीं ज्यादा भारी पड़ते हैं। अत्यधिक गंभीर अल्सरेटिव कोलाइटिस में शल्यक्रिया द्वारा बड़ी आँत को ही बाहर निकाल दिया जाता है। इन सभी शल्यक्रियाओं से जीवनचर्या अत्यंत अस्त-व्यस्त हो जाती है एवं तमाम प्रतिबंध उत्पन्न हो जाते हैं। रोगी का जीवन सीमित दायरे में सिमट जाता है।

पाचनशक्ति पुनरुत्थान:-

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योग विज्ञान के अनुसार पाचनशक्ति (जठराग्नि) के मंद पड़ जाने से कोलाइटिस रोग पनपता है। जठराग्नि का संबंध अग्नितत्त्व एवं मणिपूर चक्र से है। जठराग्नि के मंद पड़ जाने से रोगोत्पादक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि हो जाती है तथा आँतों की रासायनिक एवं मांसपेशीय प्रक्रियाएँ कमजोर पड़ जाती हैं। इन सबसे शरीर की प्रतिरोधी क्षमता(इम्यून सिस्टम) भी कमजोर हो जाती है, जिससे रोग बढ़ने लगते हैं। आँतों के काम न करने से भोजन ठीक से पच नहीं पाता है तथा बिना पचे हुए अवशिष्ट पदार्थ मल के साथ निकलते हैं। इसमें दुर्गंध उठती है। 

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यौगिक चिकित्सा के द्वारा प्राण ऊर्जा और जठराग्नि, दोनों को बढ़ाया जाता है। इससे पूरी अव्यवस्थित प्रक्रिया को पुनर्संतुलित किया जाता है। कोलाइटिस की योग चिकित्सा रोग की तीव्र (एक्यूट) अवस्था समाप्त होने पर क्षमतानुसार अभ्यास आरंभ किया जा सकता है। 

आसन:-

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पवनमुक्तासन भाग-१ और भाग-२ से प्रारंभ करें। इसके पश्चात शक्तिबंध समूह का अभ्यास करें। 

वज्रासन के सरल अभ्यास से प्रारंभ कर धीरे-धीरे भुजंगासन, धनुरासन, शलभासन, पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, हलासन, मत्स्यासन, चक्रासन, अर्द्धमत्स्येंद्रासन, मयूरासन, पद्मासन, शवासन और अंत में शीर्षासन तक का अभ्यास करते जाएँ।

भुजंगासन की विधि:-

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पेट के बल लेट जाएँ। तथा पैरों को सीधा व लंब फैला दें। हथेलियों को कंधों के नीचे जमीन पर रखें। माथे को जमीन से छूने दें। 

सावधानी से सारे शरीर को ढीला करें। विशेष रूप से पीठ की मांसपेशियों को शिथिल करें। धीरे-धीरे सिर को व कंधों को जमीन से ऊपर उठाएँ तथा सिर को जितना पीछे की ओर ले जा सकें, ले जाएँ। 

अब हाथों को काम में लाएँ और धीरे-धीरे पीठ को ऊपर की ओर, तथा पीछे की ओर झुकाते हुए गोलाकार करते जाएँ, जब तक की हाथ पूर्ण रूप से सीधे न हो जाएँ। शरीर को नाभि से ऊपर तक उठाएँ। अंतिम स्थिति में आराम के साथ कुछ देर रुकें, फिर धीरे धीरे उपर्युक्त क्रिया को विपरीत रूप में करते हुए पूर्व स्थिति में वापस लौटें।

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धनुरासन की विधि:-

पैरों को घुटनों से मोड़ें और दोनों पैरों के टखनों को पकड़ें। हाथ को सीधे रखते हुए पैरों के स्नायुओं को इस प्रकार खींचें, मानो आप उन्हें नितंबों से अलग ऊपर ले जा रहे हों। 

उसी समय जाँघों के साथ सिर और सीने को भी जमीन से जितना ऊपर ले जा सकें, ले जाने का प्रयत्न करें। इस अवस्था में आगे पीछे झूलें।

पश्चिमोत्तासन की विधि:-

हथेलियों को जाँघों पर रखते हुए पैरों को सामने की ओर फैलाकर बैठ जाएँ। शरीर को धीरे-धीरे आगे की ओर झुकाएँ। पैरों के अँगूठों को पकड़ने का प्रयत्न करें। 

यदि संभव न हो तो टखनों को पकड़ें। माथे से घुटनों को स्पर्श करने का प्रयत्न करें। किसी भी हालत में शरीर पर दबाव न डालें। अंतिम स्थिति में जितनी देर आराम से रह सकें, रहें। तत्पश्चात शरीर को ढीला करते हुए पहले की स्थिति में लौट आएँ।

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अर्द्धमत्स्येंद्रासन की विधि:-

सामने की ओर पैर को फैलाकर बैठ जाएँ। दाहिने पैर को सीधा जमीन पर बाएँ घुटने के बाहर की ओर रखें। बाएँ पैर को दाहिनी ओर मोड़ें। एड़ी दाहिने नितंब के पास रखें। बाएँ हाथ को दाहिने पैर के बाहर की ओर रखें तथा दाहिने पैर या टखने को पकड़ें। 

दाहिना घुटना बाईं भुजा के अधिक से अधिक समीप रखें। दाहिना हाथ पीछे की ओर रखें। शरीर को दाहिनी ओर मोड़ें। ग्रीवा एवं पीठ को अधिक से अधिक मोड़ने का प्रयास करें। कुछ देर इस अवस्था में रहकर धीरे-धीरे पूर्ववत् स्थिति में आ जाएँ। यही क्रिया विपरीत दिशा में करें।

मयूरासन की विधि:-

हंसासन में आएँ। शरीर के स्नायुओं पर बल डालते हुए धड़ एवं पैरों को ऐसी स्थिति में रखें कि वे जमीन के ऊपर क्षितिज अवस्था में रहें। संपूर्ण शरीर का संतुलन हथेलियों पर रखें। यह पूर्वावस्था है। 

बिना तनाव इस स्थिति में कुछ देर रुके रहें। तत्पश्चात सावधानी पूर्वक मूल अवस्था में लौट आएँ। श्वास की गति सामान्य होने पर आसन की पुनरावृत्ति की जा सकती है। 

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प्राणायाम:-

इसमें शीतली, शीतकारी, नाड़ीशोधन एवं उज्जायी का अभ्यास करना चाहिए।

शीतकारी प्राणायाम की विधि:-


जिह्वा को मुँह के भीतर पीछे की ओर इस विधि से मोड़िए कि उसके अग्रभाग का स्पर्श ऊपरी तालु से हो। दाँतों की पंक्तियों को एकदूसरी पर रखें। ओंठों को अधिक से अधिक फैलाएँ। पूरक दाँतों से करें। 

उज्जायी प्राणायाम की विधि:-



खेचरी मुद्रा लगाएँ अर्थात जिह्वा को मुँह में पीछे की ओर इस भाँति मोड़ें कि उसके अग्रप्रदेश का स्पर्श तालु से हो। अब गले में स्थित स्वरयंत्र को संकुचित करते हुए श्वसन करें। श्वास-क्रिया गहरी, धीमी हो तथा छोटे बच्चे के कोमल खर्राटे की भाँति उसकी आवाज होनी चाहिए। इस समय ऐसा अनुभव करना चाहिए कि श्वसनक्रिया नासिका से नहीं, वरन सिर्फ गले से हो रही हो।

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लघु शंखप्रक्षालन, कुंजल एवं नेति, अग्निसार क्रिया(अल्सरेटिव कोलाइटिस वाले रोगियों के लिए नहीं) का अभ्यास किया जा सकता है। 

शिथिलीकरण:- योगनिद्रा का अभ्यास प्रतिदिन करें तथा शवासन में लेटकर उदर श्वसन की चेतना बढ़ाने का प्रयास करें।

ध्यान:- अंतर्मोन का अभ्यास एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इससे रोगी अपने अवचेतन मन में छिपे कारणों को जानने-समझने, पहचानने एवं उन्हें हटाने में सफल होता है। यह कोलाइटिस के दौर को रोकने में मुख्य भूमिका निभाता है।

अन्य सुझाव:-

इस रोग के लिए ऐसा भोजन ग्रहण करना चाहिए, जो रुग्ण आँतों पर बिना दबाव डाले पोषक तत्त्वों को शरीर में पहुँचा सके। आँतों पर दबाव नहीं पड़ने से पाचनशक्ति की गति बढ़ जाती है। सामान्य भोजन पदार्थों में नमक और पानी न्यूनतम मात्रा में लेकर तथा उनके बदले दूध लेने से लक्ष्य की पूर्ति संभव है। इस रोग में दूध सर्वश्रेष्ठ आहार है। दूध बड़ी आँत को किसी भी प्रकार के क्षोभन से मुक्त रखता है तथा आँत के घावों को शांति से भरने देता है। 

इसके अलावा सादा खिचड़ी एवं दलिया भी लिया जा सकता है। आँव की पेचिश (अमीबिक डीसेंट्री) पड़ने पर दो सौ ग्राम दही लें तथा उसमें दो चम्मच शक्कर और तीन गिलास ठंडा पानी मिलाएँ। मिश्रण को अच्छी तरह घोलकर पतले कपड़े से साफ बरतन में छान लें। अब इसे कई बार पीएँ। कोई भी अन्य भोजन या पेय पदार्थ पानी सहित ग्रहण न करें, जब तक दस्त समाप्त न हो जाएँ। इस प्रकार नियमित एवं नियंत्रित अभ्यास अवश्य फलदायी सिद्ध होंगे।


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